Posts

सबुज संतक

सबुज संतक हम लोगों को इस शहर में आए हुए दो साल हो चुके थे । इस साल गर्मियों के दिन इतने कष्टदायी थे , कि हम घर बदलने की सोच रहे थे । अंतत   घर को घेरे बहुत सारे बड़े और घने पेड़ रहे , सभी की यही राय थी । पिछले वर्ष एक विशाल आम के पेड़ की छाया ने हमें गर्मी से बचाया था । चारों तरफ फैले हुए आम-पेड़ की शाखाएं-प्रशाखाएं हमारे किराए के घर की छत पर एक छतरी की तरह फैली हुई थी । छत पर चढ़कर बच्चे उसकी डाली पर बैठ जाते थे । बसंत ऋतु में अनेक चिड़ियाँ वहाँ आकर अपना घोंसला बनाती थी । गर्मी के दिनों में पेड़ पर आम लगते थे , अच्छे रसभरे मीठे आम । किराए घर के सामने फलक में घर के मालिक रहते है और पीछे वाले हिस्से में हमारा परिवार   । सामने की खुली जगह में कुर्सी डालकर सभी बैठते थे । घर के मालिक और उनकी पत्नी रहती थीं और उनके बहुत सारे दोस्त उन्हें मिलने के लिए आया करते थे । प्राय सभी उस आम के पेड़ की छाया के नीचे बैठते थे और वहाँ पर बैठक   जमती थी । गर्मी के दिनों में आसर का समय बढ़ता था । आम खाने के लिए बहुत दोस्त आते थे । ऐसा लगता , पेड़ के सारे आम केवल वे लोग ही खाते है , घर के सदस्यों क

बोझ

बोझ हाड़िआ अम्मा को खोए हुए दो महीने से ऊपर हो गए   हैं । ढूंढ ढूंढकर थकहार कर , उसके नहीं मिलने पर अपने पिता का श्राद्ध कर हाड़िआ को कुम्भ-मेले से लौटे हुए बहुत दिन हो गए हैं । माँ के बारे में पूछने पर पहले पहले अनसुना कर फिर कहता है , “ इलाहाबाद जैसे बड़े शहर में और माँ को कहाँ ढूंढ निकाल पाता ? मेरे जैसे दिहाड़ी मजदूर के पास इतना अर्थ बल पैसे कहाँ ? चार दिन भूखा-प्यासा रहा , ठंडे   ओस के बूंदों पर मैं   और कितने दिन पड़े रहता ? इधर मेरा घर-बार भी तो संभालना है .... । “ बात भी सही है । कुम्भ के मेले में लाखों भक्तों की भीड़ में अगर एक बार कोई खो जाए तो उसे पाना इतना सहज नहीं है । रह-रहकर उस धोकड़ी बुढ़िया की बहुत याद आने लगी । हमारे लोहे के विशाल गेट को बड़ी तकलीफ से खोलकर भीतर आती थी । बहुत दिनों से बिना धुले मैले कपड़ों से अपने शरीर को अच्छी तरह ढ़ककर संतर्पण भाव से सीढ़ी के ऊपर आकर बैठ जाती थी । हमारा कुत्ता जो हर किसी को देखकर भौंकता है , उस बुढ़िया को कभी परेशान नहीं करता । इसलिए हाड़िआ अम्मा को जब तक कोई देख नहीं लेता था , वह ऐसे ही बैठी रहती थी बहुत समय तक ।

दर्पण में पद्मिनी

दर्पण में पद्मिनी   ‘ सेंटर पाइंट ’ के सामने के लॉन में मेरी पहली मुलाकात हुई थी सुलग्ना से , उम्र 22 या 23 रही होगी , गाढ़े नीले रंग की जीन्स पर हल्के बैगनी रंग का छोटा शर्ट पहने हुए और हाथ में सिगरेट । वह मुझे देख कर मुस्कुरा दी ,   मैं भी वशीभूत होकर उसकी तरफ खींचता चला गया , जब तक मैंने अपनी   कुर्सी पकड़ी तब तक   सात बजकर  पैंतालीस मिनट हो चुके थे । क्लब में इस समय भीड़ जमने लगती है । मेरे कुछ भी बोलने से पहले वह चारों तरफ के वातावरण से उत्साहित होकर औपचारिकता दिखाते मैंने पूछा , “ ड्रिंक्स मगाऊँ ?”   उसने कहा , “ स्योर , आई आम सुलग्ना एंड यू ?”   मैंने जवाब दिया , “ मैं   यहाँ सी. ड़ी. पी. ओ. बनकर   जॉइन किया हूँ पिछले हफ्ते । “ लगा जैसे वह घबरा गई और अब खूब सावधानी से बातें करनी लगी । वह लड़की बहुत सुन्दर , सुशिक्षित और अमीर परिवार की लग रही थी ।   मगर उसके बाद   वह मुझे मेरे बारे में बहुत सारे सवाल पूछने लगी और साढ़े आठ बजते-बजते न जाने   वह कहां अदृश्य हो गई । प्रायः एक महीने तक वह कहीं और नजर नहीं आई ।   एक दि