बोझ


बोझ
हाड़िआ अम्मा को खोए हुए दो महीने से ऊपर हो गए  हैंढूंढ ढूंढकर थकहार कर, उसके नहीं मिलने पर अपने पिता का श्राद्ध कर हाड़िआ को कुम्भ-मेले से लौटे हुए बहुत दिन हो गए हैं । माँ के बारे में पूछने पर पहले पहले अनसुना कर फिर कहता है,इलाहाबाद जैसे बड़े शहर में और माँ को कहाँ ढूंढ निकाल पाता ? मेरे जैसे दिहाड़ी मजदूर के पास इतना अर्थ बल पैसे कहाँ ? चार दिन भूखा-प्यासा रहा , ठंडे  ओस के बूंदों पर मैं  और कितने दिन पड़े रहता ?इधर मेरा घर-बार भी तो संभालना है .... ।
बात भी सही है । कुम्भ के मेले में लाखों भक्तों की भीड़ में अगर एक बार कोई खो जाए तो उसे पाना इतना सहज नहीं है ।
रह-रहकर उस धोकड़ी बुढ़िया की बहुत याद आने लगी । हमारे लोहे के विशाल गेट को बड़ी तकलीफ से खोलकर भीतर आती थी । बहुत दिनों से बिना धुले मैले कपड़ों से अपने शरीर को अच्छी तरह ढ़ककर संतर्पण भाव से सीढ़ी के ऊपर आकर बैठ जाती थी । हमारा कुत्ता जो हर किसी को देखकर भौंकता है , उस बुढ़िया को कभी परेशान नहीं करता । इसलिए हाड़िआ अम्मा को जब तक कोई देख नहीं लेता था ,वह ऐसे ही बैठी रहती थी बहुत समय तक । झी (नौकरानी) से पूछती थी,माँ जी से कहो कि  हाड़िआ की माँ आई हुई है।
मगर झी की कोई हमदर्दी नहीं थी । वह सोचती थी कि बिना कुछ काम-धंधा किए बुढ़िया को मुफ्त में चाय और पैसे मिल जाते हैं। मैं हाड़िआ अम्मा की आवाज सुनते ही बाहर आ जाती । उसकी आवाज स्पष्ट और गंभीर । एक कप चाय और इसके साथ एक कटोरी चूड़ा अथवा मूढ़ी ही तो चाहिए उसको!  मगर वह अपने मुंह से कुछ भी मांग नहीं करती । जाते समय एक-दो रुपए उसके हाथ में पकड़ा देती ।
हाड़िआ अम्मा की उम्र सत्तर साल से अधिक होगी । वे लोग शायद गंजाम से आए थे । उसका पति भुवनेश्वर को राजधानी में परिवर्तित होते समय मिस्त्री का काम करता था । जिस दिन से हाड़िआ अम्मा यहाँ आई, उस दिन से उसने उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करना शुरू कर दिया था। सुबह पति के काम पर चले जाने के बाद पत्नी के काम शुरू हो जाते थे । घर के बर्तन माँजना , धोबी की तरह कपड़े धोना और कोयले की आंच से इस्तरी कर कपड़े तैयार करना आदि काम वह लगभग दस साल से करती आ रही थी । जब वह इतना मेहनत नहीं कर पा रही थी तो हमारे गली में तीन घरो में काम करना शुरू कर दिया। सभी कामों में हाड़िआ की माँ उपस्थिति घर के एक सदस्य की तरह ।
हड़िया अम्मा बोलती है उसका पति शराब के नशे में एक दिन मर गया । इस वजह से शराब के प्रति उसकी घोर नफरत । वह थी सम्पूर्ण अनपढ़ । मगर हाड़िआ अम्मा का पढ़ाई के प्रति प्रबल आग्रह । हाड़िआ अम्मा का असली नाम पूछने पर वह हंसने लगती । बुढ़ापे में बिना दाँत-माढि वाला पान खाता हुआ चेहरा ,सूखे होठों से चमड़े पर पड़ी झुर्रियों में खिंचाव पैदा हो जाता । कहने लगती , हाड़िआ के पैदा होते ही उसका यह नाम पड गया । अन्यथा उसका असली नाम था लक्ष्मी । उसके जन्मते ही उसके खेतों में अच्छी फसल हुई थी , इसलिए माँ ने प्यार से उसका नाम रखा था लक्ष्मी ।
शादी के पाँच-सात साल बाद वह भुवनेश्वर आई । पुराने स्टेशन के किनारे एक कुटिया थी। जब राघव ने कोठा बनाया था, तब उसने और लक्ष्मी ने भी मिल कर रात दिन मेहनत कर अपना एक छोटा-सा घर बनाया पत्थर,बालू और सीमेंट का पक्का घर । उस घर में भी एक शयन-कक्ष , एक रसोई  और एक बैठक कक्ष अवश्य होगा । राघव मिस्त्री जो दूसरों के लिए घर बनाता था , अपने घर के लिए सपने देखता । पति-पत्नी दोनों बहुत ही मेहनती । किसी को शराब की लत नहीं, और किसी में कोई अवगुण नहीं। हाड़िआ के बाद लक्ष्मी के घर एक लड़की पैदा हुई । उस छोटे घर में लालटेन जलाकर भाई बहिन ने पढ़ाई की । स्कूल में कोई दूसरा बच्चा उनके साथ मिलता-जुलता नहीं था । मजदूरों के घर बनाने और बच्चों को स्कूल भेजने की बात आज भी बिरली है । सावित्री के पाँच क्लास में पढ़ते समय लक्ष्मी ने उसकी शादी कर दी थी । पति की टेलरिंग की दुकान थी । छोटे परिवार में खुशी से रहेगी ,सोचकर वह निश्चिंत हो गई थी । बेटी खुशी से रहने लगी । माँ की लाड़ली बेटी प्राय घर आती रहती थी , पोता-पोती को देख लक्ष्मी खुशी से फुले नहीं समाती थी । हाड़िआ भी माँ-बाप की आँखों की तारा , बहिन को बहुत प्यार करता था । अपने ससुराल जाते समय वह स्वयं साथ जाकर सामान उसे देकर आता था ।
हाड़िआ की शादी के बाद मगर सब-कुछ बदल गया । बहू सीता के आते ही पहले उसने खाने-पीने में पाबंदी करना शुरू किया । मगर माँ-बाप बेटे को कुछ भी नहीं कहते थे । एक मुट्ठी चावल ज्यादा खा लेने से क्या ज्यादा ताकत आ जाएगी ? बुढ़िया जब तक लोगों के घर बर्तन मांज रही थी , तब तक उन पैसों से बूढ़े के लिए चाय ,पावरोटी ,बिस्किट और दवाई खरीद लाती । माँ-बाप का और क्या संबल चाहिए , अगर बच्चे बड़े होकर बुढ़ापे का सहारा बने तो !
बेटे के आगे बहू सीता का रूप एकदम अलग । शाम को 5 बजे साफ-सुथरी साडी पहनकर ,चेहरे पर पाउडर-क्रीम लगाकर ,बाल कंघी कर जूड़ा बांध जब इटला फूल की माला सजाती है तब बहू का सुंदर कमनीय रूप देखकर सास-ससुर बहुत खुश । वे भी मुग्ध हो जाते है । इतना कुछ आयोजन हाड़िया के लिए , बेटा सुख में है ,सोचकर वे आश्वस्त हो जाते हैं। शाम के बेटा-बहू सिनेमा देखने बाहर जाते हैं । कभी-कभी रात को दस बज जाते थे , सास-ससुर पानी पीकर सो जाते थे ,क्योंकि रसोई घर पर ताला , खाना बनाती भी नहीं । बेटे को शायद ये सब कुछ पता नहीं है , बहू के खिलाफ कान भरने से शायद अवस्था शोचनीय होगी , सोचकर वे चुप रह जाते थे । बूढ़ा जब तक जिंदा था, लक्ष्मी  उसका ध्यान रखती थी ।  मगर बूढ़े ने जिस दिन से शराब पीना आरंभ की , छुपाने की हजार कोशिशों के बाद भी उसकी दुर्गंध लक्ष्मी तक पहुँच जाती थी । तब से उनके भीतर अशांति बढ़ती गई । बूढ़े की नित-दिन की यंत्रणा और लक्ष्मी के अनकहे कोह के अंदर शराब जैसे शैतान का आर्विभाव । कुछ दिनों में राघव मर गया । मरने के लिए कितना आसान रास्ता अपना लेते हैं ये पुरुष लोग ! लक्ष्मी अकेली हो गई, केवल हाड़िया की माँ बनकर रह गई ।
 
लक्ष्मी भी दुखी थी ऐसे जीवन का अंत क्यों नहीं हो जाता , कहकर किस्मत को कोसने लगती । केवल चाय और पान के सिवाय और कोई आदत नहीं थी । गले में रस्सी लगाकर आत्म-हत्या की बात वह सोच नहीं सकती । वह अपनों के नजदीक और उन लोगों के साथ जीना चाहती है !उसका एक ही दुख है , बहू भरपेट खाना नहीं देती है । दिन को तीन बजे चावल चढ़ाती थी । सुबह से बूढ़ी इंतजार करती है , बहू देखकर भी अनदेखा करने जैसा भाव दिखाती है । हाड़िया अम्मा घर में छोटा-मोटा काम समाप्त कर बाहर निकल जाती है । त्यौहारों  के दिन लड़कियों और बहुओं के पैरों में अलता लगाती है । व्रत और शादीघर में अपने आप हाजिर हो जाती थीहुलहुली देती है , जो पैसा मिलता है उसे रखती है । सुबह चाय की दुकान पर आकर चाय और पावरोटी खरीद कर खाती है । कभी-कभी उन्हीं पैसों से पोता-पोती के लिए मिठाई खरीद लेती है । कभी-कभी मूढ़ी के डिब्बे खाली , तो कभी-कभी बिस्तर के नीचे से पैसे भी गायब ! ये सारे कारनामे पोता-पोती के या फिर बहू के , यह बात जानना मुश्किल । मगर जुबान खोलने से दिक्कत ।
मेरे पैरों में आलता लगाने के लिए हाड़िया अम्मा प्राय: आती है । शहर के भीतर यह ट्रेडिशन जीवित वह रखी थी मेरे लिए । चाय-नाश्ता करते समय दुख भरी बातें कहती है । एक दिन वह बहुत समय तक चुपचाप बैठी रही । बहुत पूछने के बाद उसने कहा । लड़के ने कहा है कि मेरे घर के पीछे  बाड़ी की तरफ मेरे लिए एक अलग कुटिया बना देगा , घर में और जगह नहीं । इतना कहकर फिर चुपचाप बैठी रही । क्रोध,अपमान,अवसाद से भरी बूढ़ी महिला की दोनों निष्प्रभ आँखें सूखे हुए आंसुओं की तीव्रता से जल रही थी । मुहल्ले वालों के हस्तक्षेप के कारण उपाय व्यवस्था फलीभूत नहीं हो पाई ।
उसके बाद मगर बेटे के साथ बूढ़ी माँ का वाकयुद्ध शुरू हो गया । फिर सीधा गाली-गलौच । सब लोग बेटे को समझाते है । क्योंकि वह घर बूढ़ा-बूढ़ी का बनाया हुआ था , उस समय बेटे ने एक भी पैसा नहीं था । इस तरह की अनेक अप्रीतिकर अवस्था में सत्तर वर्षीय बूढ़ी को पड़ा । बीच-बीच में बेटी आकर हफ्ता-दस दिन रुकती है । भाभी का सारा काम करती है । दाल,चावल,सब्जी सब लाती है और रसोई बनाकर खाने के लिए परोसती है । इससे और अधिक नहीं कर पाएगी ,कहकर माँ को सुनाती है । माँ भी बेटी के घर जाती है मगर दो दिन से ज्यादा नहीं रह पाती । रात को चार बजे उठकर सावित्री काम में लग जाती है । तीस साल की उसकी बेटी, इतना काम करते-करते दुबली हो गयी थी, वह चौदह  साल की उम्र जैसी दिख रही थी । पाँचवीं तक पढ़ाई करने के बाद भी केवल पैसे गिनना जानती है , अंगूठा लगाकर दस्तखत करती है । इसके लिए हाड़िया अम्मा को क्षोभ होता है । सारे दिन घर में काम करने के बाद भी शराबी पति की मार सहन कर पड़ी हुई सावित्री के घर में एक भी दिन उसकी रहने की इच्छा नहीं होती । अपना घर ठीक लगता है । अपने हाथों से तैयार किए घर में कितनी यादें बची है । कितनी घटनाओं का इतिहास है । इस घर में वह  चटाई बिछा रही थी , बड़ी से छत भर देती थी , घर के आँगन में गेंदे के फूल खिलने लगते । बहू का इन सारी चीजों से कोई वास्ता नहीं . । साड़ी और सुंदर गहने पहनकर सिनेमा देखने में लगा रहता है उसका मन । हाड़िया अम्मा की सपना देखने वाली आँखें अब आंसुओं से भीग जाती । वह असहाय लगने लगती है ।
 
अचानक एक दिन हाड़िया अम्मा ने आकर  बताया कि वह तीर्थ करने जा रही है इलाहाबाद । वहाँ की डूबकी बहुत ही पवित्र ,और पुनर्जन्म का कोई जंजाल नहीं । सभी से छुपाकर रखी पाँच हजार रुपए लेकर वह तीर्थ करने जाएगी अपने बेटे के साथ । आनंद से उसके पाँव जमीन पर नहीं लग रहे थे । बेटे ने भी म्यूनसिपलटी ऑफिस से छुट्टी ले ली और सबको कहते हुए घूमने लगा, माँ को तीर्थ कराने ले जा रहा है ।माँ के भी बड़े अरमान है । सभी ने उसकी प्रशंसा की । किसी किसी ने पैसों की भी मदद की । आजकल कितने बेटे माँ-बाप की ऐसी ख़्वाहिश पूरी करते है  ! इस तरह सभी से आशीर्वाद लेकर माँ-बेटे ने दिल्ली की ट्रेन पकड़ी ।
पंद्रह दिन के बाद हाड़िया लौटा ,किन्तु माँ नहीं । महाकुंभ के जन-समुद्र में एकदिन माँ का हाथ छूट गया और फिर वह कभी नहीं मिली । हाड़िया कहने लगा, सब जगह उसने माँ को ढूंढा  , मगर कुछ फायदा नहीं हुआ । निरक्षर हाड़िया अम्मा अपनी मातृभाषा के सिवाय और कोई भाषा नहीं समझती थी, वह अपनी गुमशुदगी के बारे में किसे क्या कह पाएगी यह बात वह सोच नहीं पाई । अखबारों में पढ़ा था , बहुत सारे ऐसे लोग अपने माँ-बाप को इस धर्म समुद्र में जान बूझकर बहाकर चले जाते थे , सूचना काउंटर में खोज-खबर लेने का सवाल ही नहीं । हाड़िया अम्मा का वह दांभिक चेहरा आँखों के सामने तैर आता है । अपमान के दो टपकते आँसू , उसकी गड्ढे में घुसी आँखों वाली छबि मुझे अभी भी याद है ।
उसका क्या हुआ ?   


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