अवांछित
अवांछित
कोलकाता शहर का एक विख्यात अस्पताल। अस्पताल में छह बेड का कमरा।
मेरे पास वाले बेड पर सोए हुए थे एक बहत्तर वर्षीय अति गौरवर्ण शीर्णकाय भद्र
वृद्ध रोगी। केवल एक ही दिन में मैं परेशान हो गई थी,उस नर्सिंग होम के ज्यादा साफ-सुथरे और बार-बार
डिटोल के पानी से पोंछा लगाए हुए परिवेश से। मगर उस भद्र वृद्ध व्यक्ति के लिए
सिर्फ एक दिन के लिए भी उनका नर्सिंग होम छोडकर घर जाना मुश्किल तो क्या नामुमकिन
लग रहा था।
बहत्तर साल का वृद्ध। दो बड़ी-बड़ी आँखों की पुतलियाँ मानो जैसे किसी
प्रिय परिजन को आतुरता से देखने के लिए प्रतीक्षा करते-करते फूटकर बाहर निकल आई हो! सबसे ज्यादा मर्मांतक
लग रही थी उनके एक हाथ और एक पैर में डाली गई मोटे स्टील की एक चैन, किसी कुत्ते को बांध कर रखने की तरह। कहीं चले
नहीं जाए इसलिए। उनका कहीं चला जाना भी कितना स्वाभाविक! पैंतीस साल की माँ होकर
भी जब मैं पंख लगाकर कहीं उड़ जाने को छटपटाती रहती हूँ, तब लगभग एक साल से नर्सिंग होम के एक बेड में बंधे
रहने की यंत्रणा कितनी पीड़ादायक होगी सच में! अपने घर,अपने परिवार में रहने के लिए कितने आतुर रहे होंगे
वह!
सारे सप्ताह उनके बच्चे बारी–बारी से आते थे। भद्र व्यक्ति के सात बेटे। सातों ने
खंबों की तरह अपने पिता के कपड़ा-व्यवसाय को संभाल लिया था। हररोज वे लोग एक घंटा
आते थे फल,दूध और खाने का सामान लेकर। वे लोग
बहुत ही स्वच्छल थे।
पहले दिन मंझला बेटा आया था। साथ में बहू के भाई भी। उस दिन घर में
शायद किसी का जन्मदिन था। वे पूरे वार्ड के लिए स्वादिष्ट खाना और केक लाया था।
बहू उनके शरीर ,सिर और हाथ सहला रही थी।
वृद्ध आदमी के चेहरे पर उस
दिन कितनी प्रशान्ति! बेटा बहुत समय तक डॉक्टर के साथ बातचीत कर रहा था। तब जाकर
समझ में आया कि वे लोग करोड़पति हैं। तब मुझे मालूम हुआ कि वे लोग दूसरे दिन
पोता-पोती को लेकर आएंगें। वह वृद्ध व्यक्ति उस दिन बहुत आनंदित लग रहे थे और
शांति से सो गए थे। उन्हें विश्वास हो रहा था कि रोग ठीक हो जाने पर वह निश्चित
रूप से घर लौट जाएंगे, और फिर सबके
साथ रहेंगे।
उस दिन अचानक आधी रात में मेरी नींद टूट गई। मैंने देखा कि वार्ड में
सभी गहरी नींद में सोए हुए हैं, केवल वह
वृद्ध व्यक्ति सीधे बैठे हुए थे धूप-छांव के क्षीण आलोक में। अचानक मुझे बहुत भय
लगा, वे मानो मृत्युदूत की तरह लग रहे थे।
मैं मन ही मन प्रार्थना करते-करते सो गई। सुबह उन्हें गहरी नींद में देखकर आश्वस्त
हो गई।
उस दिन दूसरे बेटे की बारी। शायद वे सब कर्तव्य की ताड़ना की वजह से
आए थे,श्रद्धापूर्वक नहीं। बहू भी उनके
बिजनेस में काम करती थी। वे लोग रसोइ वाले नाश्ते से भरे हाटकेस कैरियर को नर्स को
पकड़ाकर चले गए। उन्होंने नर्स से पूछा – “ यह और ज्यादा
परेशान नहीं कर रहा है तो ?” उसके बाद
उन्होंने अपने बुड्ढे पिता को समझाना शुरू किया, जैसे वह दूसरे को और ज्यादा परेशान न करें! उस दिन वह दिनभर चुपचाप बैठे
रहे थे। किसी की तरफ देख भी नहीं रहे थे। बातचीत एकदम बंद। खाने के लिए भी इंकार
कर दिया। आश्चर्य तो तब हुआ जब उस नर्स ने एक-दो बार खाने का कहकर अंत में खाने की
थाली उठाकर ले गई। खाली पेट रहे उस दोपहर के वक्त, नाराजगी में। नर्स को एक रोगी ने कहा, “ बूढ़ा अगर नहीं खाएगा तो जिंदा कैसे रहेगा?” उस नर्स
ने जवाब दिया, “ बूढ़े को छोडकर उसे बहुत लोगों को
देखना है। उनके लिए पूरा समय देना उसके लिए असंभव है।”
इच्छा हो रही थी कि उस बूढ़े के पास जाकर उसके हाथ और सिर सहला देती।
समझा-बूझाकर मैं उसे खाना खिला देती। खाना स्वादिष्ट था, उनके लिए हर रोज खाना हॉटकेस में आता था। मगर वह
अधिकतर दिन नहीं खाता था। नर्स एक बार या दो बार खाना खाने के लिए कहकर चली जाती
थी, मानो वह किसी जेल का कैदी हो!
उस दिन वह और निस्तेज होकर नहीं पड़े हुए थे, वरन हर क्षण अस्थिर होकर बाहर निकलने की कोशिश कर
रहे थे, मगर नहीं कर पा रहे थे। उनके हाथ और
पैर में सख्त स्टील की शृंखला लगी हुई थी। उनके सफ़ेद पैर में नीली धमनी साफ दिखाई दे रही
थी पोर्सिलीन की मूर्ति की तरह। उस पर चेन की सख्त खिंचाई से रक्तिम दाग दिखाई दे
रहे थे। हृदय विदारक था वह दृश्य। मन में आ रहा था, अगर मेरे पास उतने पैसे होते तो शायद मैं उन्हें उस अस्पताल से अपने
घर ले जाती। सेवा करने में कुछ भी कसर नहीं छोडती। इस तरह नर्सिंग-होम में छोडकर
बाकी जिंदगी बिताने के लिए कभी नहीं छोड़ती। नर्सिंग होम में बहुत पैसा खर्च हो रहा होगा। एक दिन में कम से
कम पाँच हजार। इतना प्राचुर्य होने पर भी एक दिन मनुष्य को अपने हाथ से निर्मित छत
के नीचे सांस लेने का भी मौका नहीं मिलेगा। यह बात कभी कोई सोच सकता है ? उस दिन उनके टखने पर बहुत ज़ोर का आघात लगा था। एक
जगह से रक्त की बूंदें भी बही थी। नर्स ने दवाई दे दी,उसके बाद उन्हें सिडेटिव का इंजेंक्शन भी लगा दिया
ताकि वह सो जाए।
उस दिन शाम को छह बजे तक निस्तेज होकर वह सोए रहे। एक शिथिल मनुष्य,जिसे ओढा दी गई थी एक सफ़ेद रंग की चादर। मौत और
जीवन के बीच मानो फर्क नहीं था। नर्स पर आक्षेप लगाते हुए मैंने कहा, “ तुम इस तरह यंत्रवत हृदयहीन की तरह काम क्यों
करती हो? थोड़े से आदर के साथ एक बूढ़ा आदमी
की देखभाल करना क्या तुम्हें इतना
कष्टकारी लगता है?" नर्स ने उत्तर दिया, “ एक दिन या दो दिन की बात नहीं है। ऐसे करते-करते
एक साल बीत गया। हर दिन वहीं एक बात। बड़े आदमी है,बहुत पैसा है। शायद बूढ़ा मरते दम तक यहाँ पड़ा रहेगा। पहले-पहले हम
बहुत देखभाल कर रहे थे। मगर उन्हें हमारे प्यार,स्नेह और साहचर्य की जरूरत नहीं है। वे ढूंढते है अपने बड़े संसार को, बेटे,बहू,पोता,पोती को।
ढूंढते है अपने बिजनेस को। अगर वह खुद पागल नहीं हुए है तो उनके पास ज्यादा समय
रहने वाला पागल हो जाएगा।”
मन नहीं मान रहा था। मन कर रहा था कि बूढ़े के नींद टूटने के बाद उसके
पास में जाकर बैठूँगी, उनकी बातें
सुनूंगी। उनकी बातचीत बहुत मार्जित थी, नापतौल कर,जैसे कोई भद्रव्यक्ति ड्राइंग-रूम में बैठकर
अल्प-स्वल्प बातें करता है। अपने विषय में मुझे कुछ बताना तो दूर की बात, उन्होंने मुझे जरा-सा आभास नहीं होने दिया अपनी
आभिजात्य की उस अभेद्य परंपरा के बारे में। वे अपनी आँखों से अच्छी तरह देख नहीं
पा रहे थे। मगर वह पढ़ना चाहते थे बिजनेस स्टेंडर्ड और समझना चाहते थे सेंसेक्स
इंडेक्स के उतार-चढ़ाव को। वे कहना चाहते थे,अपने बुनियादी
वंश के रीति-रिवाज के बारे में। मगर वह सब मुझे नहीं, अपना इतिहास बताएँगे अपने पोता-पोती को। जिनके पास
उन्हें सुनने के लिए न तो समय होगा और न ही इच्छा। वह चाहते थे प्रतिदिन भागवत के
एक-एक अध्याय को ज़ोर-ज़ोर से पढ़ना। संभवत नहीं हो रहा था। सारे बेटे किसी प्रकार का
हस्तक्षेप पसंद नहीं करते थे। असल में उनकी किसी भी बात से कोई भी सहमत नहीं था।
इसलिए उन्हें नर्सिंग-होम में रहना पड रहा है। इस कारण वह बिलकुल पागल नहीं थे, उन्हें किसी भी सेनेटोरियम में नहीं छोड़ा गया था।
अस्पताल में पड़े ऐसे एक धनी संभ्रांत रोगी की देखभाल करने में नर्स,डॉक्टर को बिलकुल परेशानी या संकोच नहीं होना चाहिए, फिर भी वे लोग अत्यंत वितस्पृह लग रहे थे। सब कुछ
जैसे रूटिन के मुताबिक। बिना कुछ खाए-पिए बूढ़ा बहुत बार शिथिल होकर पडे रहते थे।
वह जीवन की कामना कर रहे थे,मौत की नहीं। उन्हें
विश्वास था कि वह जल्दी ही ठीक हो जाएंगे
और अपने घर लौट जाएंगे। इसलिए उन्हें अस्पताल में रोगी या नर्स से मिलना-जुलना
पसंद नहीं था। सब लोग आशा किए हुए थे, बूढ़ा जैसे
अपनी असहायता के लिए सबके सामने और भी असहाय बनकर स्नेह और श्रद्धा की भीख
मांगेंगे, तब जाकर .... ।
दूसरे दिन एक और परिवार आया, वे अपने बेटे
को भी साथ ले आए थे। दूसरी बहुओं की तरह यह भद्रमहिला ज्यादा आभिजात्य सम्पन्न नजर
नहीं आ रही थी। मगर साफ इस्तरी की हुई सूती साड़ी में वह बहुत मार्जित लग रही थी।
बच्चे को देखकर दादाजी बहुत खुश हो गए। वह भी उन्हें अपने एक सप्ताह की सारी
छोटी-मोटी घटनाओं को एक द्रुतगामी ट्रेन की तरह बोलते गए। अपने साथ बहुत चाकलेट
लाया था वह। उसके दादाजी ने उन चाकलेटों को हम सब में बांटने के लिए कहा। हमने उसे
आशीर्वाद दिया। वह एक घंटा हम सभी के लिए बहुत सुखद था, एक मृदु मलय की तरह। बूढ़े ससुर के हाथ-पाँव में
बने लाल दागों को देखकर बहू की दोनों आँखें छलक पड़ी। पोता जिद्द कर रहा था –
दादाजी,घर चलिए ... ।
हिम्मत करके मैंने पूछा, “ क्या आप घर
में रखकर इस सज्जन व्यक्ति की देखभाल नहीं कर सकते है? बेचारा दिनभर आप लोगों को याद करता रहता है। कल तो
खाना तक नहीं खाया। रात भर सैलाइन पर रहना पड़ा। शेष जीवन में मनुष्य को बेटे और
पोते के साथ रहने से शांति मिलती है .... ।“
मुझे और कुछ कहने न देकर वह कहने लगी , “ मैं भी वही चाहती हूँ। मगर मनुष्य के चाहने से क्या होता है ,कहिए तो? हमारा
व्यवसाय बिलकुल अच्छा नहीं चल रहा है। इसलिए मुझे नौकरी करनी पड रही है। यहाँ से
मुझे सीधा बैंक जाना पड़ेगा। हर दिन सुबह 8.30 से शाम 6.30 हो जाता है। उसके बाद
फिर घर का सारा काम। मेरे पास न समय है ,न सामर्थ्य।
ऐसे देखा जाए तो ये यहाँ पर बहुत अच्छे से है। कम से कम निरापद है नर्स और डॉक्टर
के पास।”
दूसरे दिन वह फिर आई और सीधे आकर मेरे पास बैठ गई। कहने लगी, “ आज मेरे आने का दिन नहीं है । मगर छुट्टी है ,इसलिए आ गई। वास्तव में,मैं पूरे दिन ससुरजी के बारे में सोचती रहती हूँ।
मुझे लाचार लगता है। किसी को कह नहीं पाती हूँ अपने द्वंद्व की अवस्था। मुझे पता
है, आज शाम को आप डिस्चार्ज हो जाओगी और
फिर मुलाकात नहीं हो पाएगी। इसलिए मैं आ गई। आपको कहूँगी मेरी असली समस्या।“
मेरी कोई व्यस्तता नहीं थी। मैं व्यग्र होकर सुनने लगी।
“ बीच में वह कुछ दिन हमारे पास रुके थे। सास चले जाने के बाद वह
........ इनके बेटों के पास रहते थे। किसी से भी मिलना-जुलना उन्हें पसंद नहीं था।
मगर घर में उनकी खूब चलती थी। हर समय हर बात में अपनी राय पर कायम रहना सुनिश्चित।
ऐसे जैसे मेरे बच्चे कब क्या करेंगे , सब वह
निर्धारित करेंगे। मेरे पति मेरे घर में रहकर भी नहीं के बराबर। क्योंकि सुबह और
शाम के समय केवल पापा के पास बैठना पड़ता है। इसलिए वह कभी-कभी जान-बूझकर घूमने के
लिए बाहर चले जाते है। घर में किसी भी विषय पर मेरी किसी बात का कोई मूल्य नहीं।
सच कहूँ तो मेरी जगह किसी नौकरानी से भी बदत्तर थी। मेरे पति का बिजनेस अच्छा नहीं
चल रहा था। इसलिए वह मुझे ही उत्तरदायी समझ रहे थे। मैंने अच्छी-खासी पढ़ाई की थी।
शादी से पहले एमएससी फर्स्ट क्लास पाकर कंपीटिटिव परीक्षा की तैयारी कर रही थी।
मगर उसके बाद सब कुछ बदल गया जैसे। औरतों के काम जैसे पति की सहचरी बन सज-धज कर
घूमना। मेरी बाकी जेठानियाँ और देवरानियाँ यही काम करती है। परंतु मैं अपने बच्चों
का अच्छी तरह देखभाल करना चाहती थी ताकि वे दुनिया में अच्छे अच्छे इंसान बने। मैं
सोच रही थी, मेरी पति के साथ कहासुनी,यहाँ तक कि मत-पार्थक्य एक मामूली-सी घटना है। मगर
मेरे ससुरजी को ये सारी बातें बिलकुल पसंद नहीं थी।सच बात तो यह है कि हर बात में
उनकी हमेशा एक छत्रवाद वाली विचारधारा मुझे
व्यस्त और विव्रत कर देती थी। सबसे अधिक दम लेने वाली बात थी हमारे बीच
प्राइवेसी नाम की कोई चीज बची नहीं थी।
हमारा घर कहने से दो रूम, बीच में ईंट
की पतली-सी दीवार। उसके बाद भी मैं नौकरी करने के लिए विवश हुई। मेरे पास और क्या
उपाय था? मुझे भी अच्छा नहीं लगता है कि इस
उम्र में कोई अकेले अस्पताल के बिस्तर पर रहे। ड्यूटी करने की तरह सब आए और उसके
बाद निश्चिंत होकर सब अपनी दुनिया में लौट जाए। कभी-कभी इच्छा होती है आकर कहूँ,यह कैसे करूँ कहिए,वह कैसे होगा कहिए। सब छोटी-छोटी बातों में भी उनका मत होता था
अकाट्य। उन सब छोटी-छोटी बातों को मैं
बहुत याद करती हूँ। मगर मैं लाचार।”
उनके दोनों हाथ पकड़कर मैं बैठी रही कुछ समय। मेरे मुंह में कोई शब्द
नहीं थे। सब भाग्य का खेल। उनके उन नरम हाथों के भीतर जैसे प्रवाहित हो रहा था
उनकी अंतरात्मा का कोह। वह उस दिन चले गए। मैं और उस वृद्ध व्यक्ति की तरफ देख
नहीं पा रही थी। केवल भाव-प्रवणता से काम नहीं चलेगा, इस तरह का हृदबोध होने लगा था मुझे।
घर में मेरे दो महीने का बच्चा। गाँव में मेरे श्वासरोगी ससुर। मन
करता है वे यहाँ आए,मगर बच्चे के तीन महीने हो जाने से आया
की ज़िम्मेदारी में छोडकर मुझे भी ऑफिस ड्यूटी करनी होगी वही सुबह 8.30 से शाम 6
बजे तक। अब कहीं से बहती आ रही है,गंगशिवली की
खुशबू। मैं अपने लिए सपना देखने के लिए तैयार होती हूँ, नहीं तो ग्लानि में डूबने का समय ज्यादा दूर नहीं
है इसलिए।”
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