बेटी


बेटी
मेरे दो बच्चे । शिवु और बेटी सुधा । शिवु बड़ा है , चेन्नई में इस साल को मिलाकर चार साल हो जाएंगे । पच्चीस साल का हो गया है वह और एक साल के बाद मेरी सेवा-निवृति के समय वह नौकरी कर रहा होगा , मगर आज तक उस बारे में रात भर सपना भी नहीं दिखाया उसने मुझे । सोचा था बेटी की शादी कर देने से जंजाल खत्म हो जाएगा ,मगर इन कुछ दिनों में हम बूढ़ा-बूढ़ी दोनों की समस्याएँ मानो दस गुना बढ़ गई हो । उम्र हो गई हैं हमारी । बाकी का जीवन इस तरह नीरस और निसंग लगता है कि मुझे एक रात भी पूरी तरह से नींद नहीं आती ।
सुधा की बी॰ए॰ पढ़ते समय ही शादी कर दी थी मैंने। बेटी ज्यादा पढ़ाई करे ,योग्य बने ,स्वनिर्भर हो , इन सारी बातों में व्यक्तिगत रूप से मेरा कोई विश्वास नहीं है । मेरे जैसे निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में बेटी को ज्यादा दिन घर पर बिठाने का अर्थ  रूई की गांठ  को आंसुओं से भिगोना । सुधा के लिए लड़का ढूंढने में मैं कम परेशान नहीं हुआ हूँ । बंधुओं, रिश्तेदार, पड़ोसियों, ऑफिसर सहकर्मियों सभी को कहकर ढूंढ़ा दो साल । आँखों से नींद गायब हो गई थी हम दोनों की । पूरे जीवन हमने उसे कड़ी निगाहों में रखा है । आजकल के बच्चों की कपड़ें ,वेशभूषा की धार में नहीं थी हमारी सुधा । जिस दिन लड़के वाले उसे देखने आए थे , उस दिन ही पहली बार मैंने देखा था उसे साड़ी पहने । अच्छी तरह सजी हुई गुड़िया की तरह दिख रही थी हमारी सुधा ।
सुधा को उसकी माँ प्यार नहीं करती है ,ऐसी बात नहीं थी , फिर भी ऐसा लगता है कि माँ बेटे को जितना लाड़-दुलार करती है ,बेटी के प्रति वह इतनी कोमल नहीं थी । सुधा और उसकी माँ का कलह देखकर मन विषण्ण हो जाता था । गलती किसकी है पता नहीं , ऐसा लगता है स्त्री-जाति इतनी कलहप्रिय .... नौकरी करना पड़ता तो शायद यह अवगुण नहीं रहता । इसके अलावा , मैंने सुमती को कभी नहीं देखा बेटी की चोटी गूँथते या उसके लिए अच्छे कपड़ों की मांग करते नहीं देखा । वैसे भी सुधा दूसरों की अमानत है और हमारे लिए कुछ दिनों की मेहमान । सुधा देखने में पतली और काले रंग की है , इसलिए उसकी शादी के प्रस्ताव में बहुत परेशान हुआ हूँ मैं । आजकल गुणों को कौन देखता है ?
हमारी शादी को छब्बीस साल बीत चुके हैं । अवश्य , मेरी नौकरी और पारिवारिक समस्याओं के कारण मेरी शादी देर से हुई , माँ ने जहां सोच रखा था वहीं , पूछताछ कुछ भी नहीं । अपनी शादी से मैं बहुत खुश था । अपना घर बनाते समय जब केवल हम दोनों शहर आ गए , तब सुमती मेरी परम सखी थी । हमें पति-पत्नी के रूप में कभी घंटों-घंटों बातें करते करते रात बीत जाती थी, या हमे नींद नहीं आती थी, ये बातें मुझे याद नहीं । सुबह उठकर घर साफ-सुथरा करके बर्तन माँजकर चाय-नाश्ता ख़ाना खाकर और फिर रसाई का काम समाप्त कर ऑफिस जाते-जाते समय कहाँ चला जाता था । ऑफिस से लौटकर चाय-नाश्ता करके रेडियो सुनना अथवा आँगन में कुर्सी डालकर कहानी की किताब पढ़ने से समय शांति से बीत रहा था । पत्नी की रसोई का काम समाप्त होने पर हम दोनों एक साथ खाना खाकर सो जाते थे बच्चों के पढ़ाई की चिंता मानो केवल मेरे लिए ,उनके लिए बेबीफूड खरीदना और डॉक्टर की दवाई के अलावा कुछ भी याद नहीं । बड़े होने के बाद सुधा की शादी की चिंता और शिवु के पढ़ाई की समस्या । इन दोनों  में से कौन-सा कष्ट ज्यादा था ,कह नहीं पाऊँगा । क्योंकि शिवु के डोनेशन के लिए एक लाख रुपए जुगाड़ करते समय सोच रहा था , नौकरी लग जाने से ये पैसे निकाल जाने में एक साल से ज्यादा समय नहीं लगेगा । बाद में जब उसके लिए एक जोड़ी कीमती जूते और नई पेंट-शर्ट की डिमांड आई ,तो सोचा था बच्चा है ,उसे क्या समझ में आएगा पिता की सीमित आय से ये सब निभाना कितना कष्टदायी होता है ! उसके लिए मेरे पंद्रह साल पुराने सहचर स्कूटर देने से भी उसकी जिद्द पूरी नहीं हुई । सीधा सुना दिया अगर मुझे स्कूटी नहीं देंगे तो माइनौर पढ़ने के लिए चेन्नई नहीं जाऊंगा । दोस्त सब मेरा मज़ाक उडाएंगे । सुधा की इस तरह की एक भी जिद्द का मुझे याद नहीं ,फिर भी उसे हमारा लाड़-प्यार नहीं मिलता । बेटी होकर पैदा होने के बोझ ने मानो उसे अनडिमांडेड कर दिया हो ।
सुधा जब तक थी रसोई का सम्पूर्ण दायित्व उसका । ऑफिस जाने के दिन सुबह उठकर चावल बनाना और मेरे मन-पसंद की साग-सब्जी तैयार कर खिला कर छोड़ती थी । टिफिन के डिब्बे में जतन से खाना डालती थी । पीसे हुए सरसों डालकर मछली की सब्जी बढ़िया बनाती थी ,मगर मैं उसके माँ के डर से खुलकर उसकी तारीफ भी नहीं कर पाता था । अब जब घर में मांस या मछली बनती है तो मेरी आंखों में आँसू भर आते है । आमिष प्रिय था मेरी बेटी को, ससुराल में प्याज और लहसुन वाला ख़ाना भी नहीं बनता हैकिस्मत से दामाद बहुत अच्छे ,शिष्ट और सज्जन । इच्छा होने से दोनों आकर हमेशा मिलकर चले जाते है । पिता के घर में बेटी का कितना आदर होता है ,कह नहीं पाऊँगा । हमारे घर पहुंचते ही तो सुमती को आराम मिल जाता है । सुधा रसोई बनाती है , हमारा मन और पेट भर जाता है ।
कल सुधा अकेली आई थी । दामाद चेन्नई गए हुए है । सुबह से शाम तक रविवार के पूरे दिन वह हमारे घर रुकी ।अब रात को दस बज गए है । खाना खाकर मैं ऐसे ही छत को सोते-सोते देख रहा था । एक दिन के लिए रुककर भी सुधा ने सीलिंग फेन साफ कर दिया है । छत में कहीं पर जाले भी नहीं है । बिस्तर की चद्दर भी साफ कर दी गई है । आज मैं उसके हाथों से धुले हुए कपड़े पहनकर ऑफिस गया था । सुधा का इस तरह साफ-सुथरा रहने का स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगता है । वास्तव में, सुधा के अभाव में हमारे घर की थोड़ी-सी मधुरता चली गई है ।
अब मुझे रातों को नींद नहीं आती है । सुमती रात को दस बजे के बाद टीवी सीरियल देखने बैठ जाती है । उसे भी शायद नींद नहीं आती है । हम दोनों के बीच किसी भी प्रकार के आलाप का समय नहीं । बेचारी को दोष देने से क्या फायदा ? दिन भर घर का काम खत्म करके फुर्सत का वक्त कहाँ है उसके पास ! उस पर मेरा मन । मेरे पहनने के कपड़ों के अलावा घर की किसी भी चीज को साफ-सुथरा रखने की आदत , यह मुझे याद नहीं । खाने में भी मेरी बड़ी रुचि । अच्छे से अगर रसोई नहीं बनी तो वह खाद्य मेरे लिए अखाद्य । समय-असमय कभी-कभार रसोई बनाने का भी मेरा सामर्थ्य नहीं । वैसे किसी में थोड़ी-सी त्रुटि रहने से धैर्य खोना मेरी बुरी आदत । इसलिए शायद सुमती और मेरे बीच मधुर दांपत्य संबंध नहीं है । अब जब मैं रसोईघर में जाकर बर्तन माँजने या सब्जी काटने लगता हूँ तो सुमती मुझे भगा देती है ये सब आदमियों के काम नहीं है । वास्तव में, सुमती पर मुझे द्या आने लगती है । जब सुधा थी ,मैं सुमती की बहुत गलतियाँ निकालता था। सारी चीजों में मेरा असंतोष ,सब में पुरुषत्व की बहादुरी । अब सुमती के साथ एक लब्ज बात करने वाला कोई नहीं । मेरा सारा दिन ऑफिस में कट जाता है । शब्दों का अभाव मुझे घर में ही लगता है । शब्द ,अपने शब्द,अपने लोगों के शब्द ..... । सुमती का टीवी सीरियल देखना कब खत्म होता है , पता नहीं , शायद जोरों की नींद आने तक ।
 
कभी-कभी आधी रात को मेरी नींद टूट जाती है । मैं सुमती को छटपटा कर  पुकारता हूँ । बहुत अकेलापन लगने लगता है ।  ऐसे भी दूसरों के ऊपर निर्भर करने वाला पुरुष क्या अकेले रह सकता है कभी ? सुमती के साथ बातें करने के लिए बहुत मन करता है । नजदीक का मनुष्य किस तरह दूर लगने  लगता है ? सोचता हूँ , क्या सोचेगी सुमती , बुढ़ापे में इस तरह की रसिकता ! अनेकों की तरह यह भी एक बदनाम मनुष्य नहीं है तो ? जल्दी सोने की तागिद कर मैं सो जाता हूँ । आखिरकार सोने की छलना करता हूँ । अंधेरे में मेरी दोनों आँखें  आंसुओं से भर जाती है । मैं निशब्द रोता हूँ । निशब्दता में मेरा रोना जारी रहता है ,आँसू सुखकर थक जाने तक ।
अब मैं सुमती की बातें सुनने के लिए विकल हो जाता हूँ । मीठी बातें कहने का बहाना नहीं मिलता है , सोचकर उसे जान-बूझकर उसे विरक्त करता हूँ । मंगलवार के दिन घर में आमिष न लाने की उसकी तागिद सुनकर मैं मछ्ली का बैग पकड़कर निकाल जाता हूँ बरमुंडा कॉलोनी से सीआरपी चौक तक । सुमती मछली नहीं खाने के लिए जिद्द करती है , मगर वह मेरे लिए बना देती है । मैं ज़ोर-जबर्दस्ती करके उसे मछली खिलाता हूँ । इस ज़ोर और अधिकार के भीतर मैं थोड़े-से प्यार का रसास्वादन करता हूँ । उसे छोडकर मैं एक पल भी नहीं रह पाऊँगा , यह मैं सीधी बातों में कैसे कह पाऊँगा उसे ?
कभी कभी मेरा मन भारी  हो जाता है । अगर हम दोनों में से कोई पहले चला गया तो दूसरा कैसे जी पाएगा ? पत्नी जी पाएगी , मगर पति नहीं । अपना काम खुद करने वाली स्त्री वास्तव में हमारे जैसे इस तरह दूसरों पर निर्भर नहीं करती है । भगवान न करे , अगर सुमती पहले चली गई ? सारा जीवन  हाहाकार  में बीत गया । बुढ़ापे में बेटे-बहू की इच्छा से जीना दुर्वह ! अपने इतने शौक , खुद की सारी इच्छाएँ इतनी स्वेच्छाचारी , उम्र हो जाने पर भी कोई मलिन नहीं हुई है । सभी को जोर से दबाना पड़ेगा । यह भी हो सकता है ,किसी दिन अच्छा खाने की इच्छा होने पर भी मुंह खोलकर नहीं मांगा जा सकता । हो सकता है ,शरीर के मेल से कपड़े गंदे हो जाने पर भी किसी के पास साफ करने का समय नहीं होगा । ऑफिस के कम के बारे में बेटे को कुछ परामर्श देने की इच्छा होने पर बेटा विरक्त होकर उठकर चला गया होगा । बहू रसोईघर में जाने नहीं देगी । पोता-पोती की पढ़ाई और खेलने का समय इस तरह बंधा हुआ होगा कि दादाजी के पास नष्ट करने के लिए समय बचा ही नहीं होगा ....... ।
कैसे बचेगा बाकी का जीवन .... ? शिवु से कभी भी हमने कुछ आशा नहीं की है , पता नहीं क्यों । तब बेटी की शादी के कुछ महीनों के अंदर ही हमारे जीवन की मानसिक दिशा बड़ी असहाय हो गई है , यह बात स्पष्ट है ।








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