डाकिया
डाकिया
सावन का महीना । लगातार
हो रही थी मूसलाधार बारिश । सारे आकाश में घने काले बादल । तीन चार दिन से ऐसा
ही मौसम लगा हुआ है । निहायत जरूरी नहीं होने से घर से बाहर
कोई कदम नहीं निकलेगा । वर्षा के कारण ऊपर से कई काम रुके हुए रहते
है । आतुरता से प्रतीक्षा की जा रही सारी चिट्ठिया अभी तक नहीं आई थीं। मौसम
खराब रहने से आने वाले सब कोई मानो रास्ते
भी भूल जाते हो ।
पहले जो डाकिया था, उसे वर्षा में भीगते-भीगते डाक बांटते देख मन सहानुभूति से भर जाता था । विभाग की ओर से मिली
खाकी पोशाक पर अपना खोर्द्धा डालकर जब वह चिलचिलाती धूप में गेट खटखटाते हुए आवाज
देता है , अपने आप मुंह से निकल आता था आः! इतनी धूप
में तुम्हारा निस्तार नहीं ! बारिश में भीगे
कपड़ों को बदलने के लिए सिवाय गमछा के अलावा उस बेचारे के पास और कोई गत्यन्तर नहीं
था । कभी-कभी मन भारी हो जाता है । धूप,बारिश ,सर्दी खाते-खाते सीजण्ड हो गया था बूढ़ा । वैसे भी
किसी पर राग-रोष या दुर्व्यवहार करते हुए कभी किसी ने नहीं देखा उसे ।
आजकल का समाज जैसा , उसमें ऐसा लगता है किसी पुरातन युग के सारे आदर्शों
को पकड़े रखा है वह बूढ़ा ….। काम वैसे भी कोई आकर्षक नहीं । महीनों-महीनों से
वेतन बढ़ा नहीं है , फीके पड़े सात जगह से सिले
एकमात्र यूनिफ़ोर्म को छोडकर नए पहनने का सामर्थ्य नहीं उसमें । उसके लिए भी कोई
अभियोग या शिकायत नहीं ।
कुछ दिन बाद हमारी कॉलोनी में आए एक डाकिए का आविर्भाव
हुआ । टेरीकोट कपड़े,रिले साइकिल के साथ रिस्ट वॉच पहने ग्रेजुएट डाकिए को देखने की अनभ्यस्त आँखों ने सोच लिया – और बूढ़े डाकिया को पैदल चलकर डाक बांटना नहीं पड़ेगा
। शायद सरकार ने इस दौरान वेतन में वृद्धि कर दी है , इसलिए उच्च शिक्षित युवक भी डाक बांटने के काम में
पीछे नहीं रह रहे है ।
कुछ दिन बाद वह डाकिया बहुत कम देखने को मिलता था ।
सप्ताह में एक –दो बार साइकिल लेकर आने के
भीतर अनेक आँखों और हृदय की प्रतीक्षा को वह देख नहीं पा रहा था । जब कोई नरम
स्वभाव से धीरे से पूछता , तो वह कहता :- नहीं , तुम्हारी कोई चिट्ठी नहीं है । बस्ती के अंतिम
किनारे का निरक्षर बूढ़ा जब पैसे भेजने के लिए शहर में नौकरशाही बेटे के पास चिट्ठी
लिखने के लिए सोचता था , तब लगभग एक सप्ताह के बाद जाकर डाकिया दिखाई देता था
। वह तो पहले वाले बूढ़े डाकिये की तरह नहीं था , उसने सीधा मना कर दिया , “यह मेरा काम नहीं है , तुम्हारे लिए दो घंटे चिट्ठी लिखूंगा तो दूसरों को चिट्ठी बाटूंगा कब ?”
बात भी सही है । धीरे-धीरे सभी को जानकारी हो गई ।
और चिट्ठी बांटने वाले आदमी को परम प्रिय मित्र न समझकर फिजूल की बातों में उसका
समय नष्ट नहीं किया ।
कुछ दिन बाद बूढ़े डाकिया को पैदल चलते उस बरगद पेड़
के नीचे पहुँचते जिसने देखा , उसे विश्वास नहीं हो पाया । पढ़ा-लिखा लड़का बांटने
वाली सारी डाक को जला देता है – यह बात वह
सोच भी नहीं पाया था , हाथ-पैर पकड़कर उसे बहुत समझाया- “ बेटे , किसके कितने जरूरी चिट्ठी-पत्र होंगे इसमें, इन सबको चीरकर फाड़ क्यों रहे हो?”
आधुनिक समाज का रवैया अलग । जवाब सुनना पड़ा- “ जा,बूढ़े , अपना काम कर । मेरे काम में टांग अड़ाने की जरूरत
नहीं है।“
बूढ़े ने जाकर ऊपर वाले हाकिम को यह सारी बात बता दी
। निरीह लोगों के चिट्ठी-पत्र इस तरह चीर कर फेंक देने से धर्म सहन कर पाएगा !
ऑफिसर ने बुलाकर उसे डांट-फटकार लगाई। युवा डाकिए ने उलटा जवाब
दिया, “ वह बूढ़ा मेरे नाम में झूठ बोल
रहा है । मेरी जगह पर पहले था , उसके स्वार्थ में आंच आने के कारण वह मेरे नाम पर
झूठ बोल रहा है।“ फिर बाद में बूढ़े को धमकाते
हुए कहने लगा, “तुझे एक दिन देख लूँगा । मेरे
नाम की शिकायत कर रहा था , नहीं ?”
इसी दौरान उस डाकिए का पुलिस सब-इंस्पेक्टर की
पोस्टिंग के लिए चयन हो गया । पोस्टिंग किसी दूर गाँव में हुई थी। तीन-चार साल के बाद उसकी बदली उसी पुराने शहर में हो गई । जहां वह
पहले डाकिया बनकर चिट्ठी बांटता था अथवा पढ़कर फाड़कर फेंक देता था , उसी जगह पर आज वह ऑफिसर था । जो पोस्ट-मास्टर उसका
हाकिम था , वहाँ वह पहले गया । हाकिम ने
उसकी पदवी के कारण उसकी खातिरदारी की । चाय-नाश्ता मंगवाया गया । चाय-नाश्ता करने
के बाद वह बूढ़े डाकिये को ढूंढ़ने लगा , किसी की अनुपस्थिति में घर में घुसकर सामान चोरी
करने के आरोप में झूठा केस दर्ज कर दिया उसे हथकड़ी पहनाने के लिए । संत्रस्त बूढ़े
के सिर पर
डंडे से जोरदार वार करते हुए ऑफिसर ने पूछा, “ मेरे नाम पर शिकायत कर रहा था , नहीं ? अब जेल में डालकर चक्की पिसवाऊंगा।“
डाकघर के सारे कर्मचारी स्तब्ध होकर देख रहे थे ।
प्रतिशोध परायण पुलिस
ऑफिसर कितना घटिया आदमी है , यह बात वे सब अनुभव कर रहे थे । हथकड़ी डालकर ले जाते
समय किसी ने तीव्र विरोध नहीं किया मगर सभी का अभिशाप उनके प्रश्वास की भाषा बन गई
। कुछ दिन बाद सभी ने मिलकर उच्च पुलिस अधिकारी को सारी घटना का जिक्र कर बूढ़े को
थाने से बाहर ले आए । उस समय कितना विवर्ण दिख रहा था उसका विकराल शरीर और विषाद में टूटा हुआ मन !
घर जाकर कॉलेज से लौटे बेटे के सामने कुर्सी में
बैठकर केवल रो रहे थे वह । बेटे को उच्चशिक्षित कर हाकिम बनाने का कितना सपना नहीं
देख रहे थे वह ... ।
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