इति चित्रांगदा
इति चित्रांगदा
जय !
जानते हो इस
गोलार्ध में अभी बसंत काल है । कम होती जा रही है सर्दी । कई दिनों
के उजड़े सपने के सभी पेड़ों पर बसंत की गुलाबी
आभा दिखाई दे रही है । खिले चेरी के गुलाबी सफेद रंग के फूल चारों तरफ बिखरे पड़ते
हैं। इन्हीं फूलों में मैं दफना रही हूँ अनेक वर्ष – तुम्हें ,और तुम्हारी
फीकी न पड़ने वाली यादगार को । यह चिट्ठी तुम्हें मिलने तक शायद वहाँ भी बसंत का महीना
समाप्त होने वाला होगा, क्योंकि जब तक
तुम्हारा वर्तमान पता मुझे मालूम नहीं ,तुम्हारा ई-मेल भी मेरे पास नहीं । इसलिए यह चिट्ठी भेज रही हूँ
तुम्हारे पैतृक घर के ठिकाने पर । शायद तुम्हारा पुराना मोटी दीवार वाला कोठी
आजकल नहीं होगा । मगर क्या ऋतु कभी बदलती है ? महानदी का
बलुई किनारा और मेरा चाँदनी रात के प्रति मोह । बारबटी किले के मैदान में शायद और अंधेरा
नहीं होगा , और नहीं होगी जुई ,हीना और कामिनी
के फूलों की सुगंध । बक्सीबाजार की पान की दुकान में मीठा पान की फरमाइश करने वाली
कमसिन लड़कियों की और भीड़ नहीं लगती होगी । तितलियों जैसी उनकी रंग-बिरंगी पोशाक , पहाड़ी झरनों
की तरह उनकी खिलखिलाती हंसी ने शायद अब और किसी को कवि नहीं बनाया होगा ।
वहाँ अभी
गुलमोहर के फूलों से भर गया होगा सारा रास्ता । दो साल पहले रिंग रोड से गुजरते
समय मुझे वह बहुत अच्छा लगा था । अप्रैल महीना याद आने से याद पड़ती है बदन कंपकंपा
देने वाला शहनाई का एक करुण संगीत, मेरे
विवाह । तेरह अप्रैल उन्नीस सौ अड़सठ का। कैसे भूल
सकती हूँ उस मुक्ति और बंधन में बांधने वाली विडम्बना को ? तुम्हें
चिट्ठी लिखते समय तरोताजा हो रही है वे यादें , मानो सबकुछ
पहले की तरह स्थिर ही हो । कुछ भी नहीं बदला है , कुछ भी नहीं
बदल पाया है । इस बार मगर सब कुछ बदल गया ।मैं बैठी रही सारी सुबह ,दोपहर ,शाम और पूरी रात । किस्मत से इस बार अर्जुन नहीं आए
थे । अन्यथा वह क्या मुझे इस टाइडल बेसिन में तीन हजार फूलों से लदे चेरी पेड़ों के
बीच इस तरह की उन्मादिनी को घंटो भर बैठने देते ? चौसठ साल में ?
सौ साल पहले
जापान से चेरी का पौधा आया था यहाँ
–उपहार में ।
मगर आँधी-तूफान में धुल गया पहला चेरी का बगीचा और उससे ज्यादा श्लेषात्मक था परमाणु बम का विस्फोट
। फूल के बदले में अमेरिकावासियों ने दिया प्रतिदान –परमाणु बम । जैसे तुमने मेरे प्यार के बदले में दी
मुझे प्रताडना । तुम्हें शायद लग रहा था कि हमारे प्यार के स्थायित्व के लिए
हमारा बिछुड़ना अनिवार्य है । सुहाग रात के पहले दिन ही मैंने जला
दिए थे तुम्हारे लिखे एक हजार प्रेम-पत्र । उसके बाद तुमने कभी भी चिट्ठी नहीं
लिखी और मैंने भी नहीं लिखी ।
बेंच के ऊपर
मैं अकेली हूँ। सिर के बाल मेम साहिबा की तरह कटवाई हूँ । उम्र की वजह
से वे सफ़ेद दिख रहे हैं । जब मैं अकेली बैठती हूँ तो ऐसा लगता है जैसे मेरे मन के
गंभीर कोने के अंदर मेरा हृदय अभी भी एक कमसीन लड़की की तरह हो , जिसे कभी किसी पुरुष स्पर्श मिला नहीं । एक यादगार –बयालीस साल पहले की । जो मुझे आज भी दग्ध
किए जा रही है , बार-बार याद आता है । तुम सहलाते थे मेरे घुटनों तक लंबे बाल और एक
दिन तुमने कहा भी था – मेरा इन
ज़ुल्फों के अंदर सोने का मन करता है । हम
लोगों ने उन दिनो ‘जवाकुसुम’तेल लगाकर जुड़ा सजाते थे । और
चेहरे पर बसंत मालती का तेल । कितनी मधुर और सेन्सुअस थी उसकी महक ! सच में
कटक शहर की एक अलग-सी पहचान थी हमेशा । गलियों के अंदर ऊंचा वरंडा
और गेट की आर्च पर मधु-मालती का तोरण ,रात में सफेद और दिन में गुलाबी रंग में बदल जा रहे थे वही सारे फूल
......।
कभी-कभी तुम जिद्द
पकड़ लेते थे । रिक्शे में बैठकर महानदी के बलुई किनारे ,नहीं तो चंडी मंदिर तक जाने के लिए । एक तो छोटा-सा रिक्शा और ऊपर से चारों तरफ से
घिरा हुआ पर्दा । रिक्शे में रोमांस । मैं अनुमति नहीं देती थी । तुम अपनी पुरानी रिले साइकिल से मेरे रिक्शे
के पीछे-पीछे आते थे और हमारी बातचीत के दौरान हर रोज एक लंबी चिट्ठी
पकड़ा देते । जिसे तुम्हारी दोनों आँखें लिखती और पढ़ती केवल मेरी आँखें । उस समय
दूरी बनाए रखने को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था । कोमल स्वर के टूटे –फूटे बोल ,पैरों के
पायल की झंकार का कितना इंतजार रहता था प्रेमी को ! मेरे दहेज के सन्दूक में उस
चिट्ठी की राख तक नहीं ला पाई थी । लड़कियों को जलाना पड़ता है अपना अतीत ,खासकर शादी से पहले का ।
अवश्य उस समय
तुम विवाह-योग्य उच्च शिक्षित और उच्च वर्ग के एक युवक । प्यार
जताने में साहसी और तोड़ने में भी दुःसाहसी ।
हजारों चिट्ठियाँ लिख सकते थे ,मगर किसी
का साथी नहीं बने । विवाह के चार दिन तक मेरे आँसू
झरने की तरह बहते ही जा रहे थे । मेरी हिम्मत नहीं
थी अपने पति को कुछ बताने के लिए । और कहती भी क्या एक कायर प्रेमी के बारे
में ? मगर बाद में यह कहने के लिए जरूर बाध्य हुई ,क्योंकि उस समय हमारे देश की शादीशुदा नारियां पति के सामने स्वच्छ होने के
लिए स्वयं आगे आती थी । आज
की बात कुछ और है । विवाह भी एक अवसर है विवाह
बहिर्भूत सहवास के लिए । तुम्हारी किसी अविवाहित प्रेमिका की खबर मेरे कानों
में नहीं पड़ी है । तुम्हारी प्रेमिकाएँ सब व्यसक और विवाहिता हैं। वे सभी तुम्हें
भैया कहकर बुलाती है । विडम्बना !
वास्तव में चालीस
वर्ष की उम्र ऐसी ही है, मानो जीवन की अक्षांश हो । मेरे दोनों बेटे डाक्टरी
पढ़ने के लिए बाहर चले गए ।
अर्जुन के बहुत बड़े अस्पताल के निर्माण का काम चल रहा था । एक प्रसिद्ध
डाक्टर की पत्नी होने के कारण मैं एक आभिजात्य स्त्री की भूमिका थी । उस समय
बहुत बार ऐसा लगता था जैसे मैं एक सुंदर विमान परिचारिका की तरह सजधज कर रह रही
हूँ और व्यसक पुरुष के आँखों में अद्भुत इशारों
का सही अंदाज लगा सकती हूँ । वह एक मोड़ था , अच्छा लगता
है या बुरा , ठीक से कहा भी नहीं । अर्जुन को ठीक उस समय तीसरा बच्चा चाहिए था ।
इस बार लड़की – हम सभी के
आँखों का तारा । बचपन से ही ‘इतिहास’ के प्रति उसका काफी रुझान था और वह अपनी मेहनत के
बलबूते पर यूनिवर्सिटी में पुरातत्व विभाग में प्रथम स्थान
पर आई ।
जब वह सत्रह
साल की थी, उस समय शायद उसे पहला पहला प्यार हुआ था शायद ही
इसीलिए क्योंकि वह उसके साथ
घंट-घंटा बात करने और पब जाने के अलावा कभी ज्यादा महानता नहीं देती
अपने ऊपर अर्थात अपनी वेषभूषा और परिपाटी में। ‘सलज्ज’ का भाव ऐसे
भी नजर नहीं आता यहाँ । बच्चों के ऊपर ज्यादा
लगाम भी नहीं रखते यहाँ के लोग । तब ऐसा लग रहा
था जैसे वह अपने भविष्य और वृत्ति को लेकर अत्यधिक अंगीकारबद्ध थी । मैं उसे एक राजकुमारी की
तरह बड़े प्यार-दुलार और प्राचुर्य से लालन-पालन करना चाहती थी ,मगर उसका मन संबंध जैसी
महत्त्वहीन बातों में नहीं लगता था । हर किसी बात में उसकी राय अलग-थलग और वह भी
अपनी मर्जी माफिक ।
रंभा जब भारत
जाकर गवेषणा करने की जिद्द करने लगी तो हम सभी परेशान हो गए ।
सबसे ज्यादा दुख हुआ उस दिन जब वह दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरी और उसकी मुलाकात किसी
भारतीय ओड़िया लड़के से हो गई और उसके बाद उसने ऐलान कर
दिया कि वह उससे प्यार करती है । लड़के के माता-पिता और परिवार के इतिहास
के बारे में कुछ भी जानने
के लिए उत्सुकता नहीं दिखाई । उसे जो पसंद आ गया ,बस वही काफी । और फिर अचानक उसने एक दिन इस ढाई दिन के संबंध को
तोड़ दी । पहले भी वह इस तरह चार बार कर चुकी थी । मगर इस बार उम्मीद थी कि अगर ओडिया घर में
उसकी शादी हो जाएगी तो हमारी भित्ति फिर से जिंदा
हो जाएगी । लड़कों को ओडिया लड़की पसंद नहीं आई इसलिए ओड़िशा से संबंध
खत्म होने लगा था ।
रंभा ने मुझे
उस समय इन्द्रभूति के परिवार के बारे में बताया और कहने लगी कि उसके पापा के
प्रति वह आकृष्ट हो गई है । जरूरी नहीं कि सभी
प्रेम-सम्बन्धों की परिणति विवाह के स्थायी वैवाहिक बंधन में
परिणित होता हो । वह भी उसे अलग ढंग से महत्त्व
देते थे । रंभा स्वयं अपने को किसी प्राक-ऐतिहासिक युग
की किसी किंवदंती नारी के पुनर्जन्म जैसी कल्पना कर
रही थी । समय कितना बादल गया है ,तुम्हीं कहो
! अपने पिता के हम-उम्र आदमी के साथ प्रेम ? क्या यह हमारे संस्कार की त्रुटि नहीं है ?
रंभा सुंदर
है ,मगर इस दिशा में स्वयं को लेकर इतनी जागरूक नहीं है
। अर्जुन जैसे भारतीय पिता की भी यह इच्छा है कि किसी प्रतिभावान पेशेवर लड़के के
साथ उसकी शादी हो जाए । शादी-शुदा आदमी के साथ किसी औरत का इस तरह का कोई संबंध हो
सकता है , उसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकते । उनका यही सोचना है कि अगर कोई
योग्य पति मिल जाए तो नारी सम्पूर्ण हो जाती है । सच में उनका कहना भी कोई गलत
नहीं है । शादी के एक साल बाद जब मैं माँ बनी तब उसके बाद मेरा विवाहित जीवन क्या
कभी बोझ बना किसी पर ? मेरा भी कहीं अलग एक अस्तित्व है , सोचकर मैं क्या अस्वस्ति से छटपटाई ?
पहली बार
मुझे अकेलापन महसूस हुआ जब मेरे दोनों बेटे कॉलेज चले गए । तब मेरी इच्छा जगी अपने
आप पर समय देने के लिए । फिर से सितार बजाने की इच्छा हुई , केवल इच्छा
ही नहीं हुई वरन मैंने सितार बजाना शुरू भी किया । आजकल किसी भी उम्र में कुछ भी
किया जा सकता है । यहाँ रहकर भी भारत के किसी गुरु से वेबसाइट के माध्यम से
नाच-गाना सीखा जा सकता है । मेरे बगीचे में फलफूल बेशुमार और लेंडस्केपिंग भी मेरा
।
पेड़-पौधों
के बारे और पक्षियों के बारे में किताबें पढ़ती हूँ। पूरी तरह से पूर्णता अनुभव
होती है । वास्तव में इससे ज्यादा मैं और क्या चाहती थी मेरे जीवन में कभी ? कभी-कभी मन
करता है कि एक दिन या तो मैं ऋषिकेश चली जाऊँगी या फिर हिमालय । मगर साधु-संतों का
साथ भी तो माया है । मैं जानती हूँ कि ये सब भी अभ्यास और पिंगल परिधान में ही
सीमित है । फिर भी मैं अर्जुन को धमकी देती हूँ छोड़कर जाने की । सच में उन्होंने
मेरी सारी इच्छाओं को तुरंत पूरा कर देते है । पलट
के एक भी सवाल नहीं करते है । एक औरत के लिए इससे ज्यादा और क्या चाहिए ? धूप-छांव से ,धूल से , धोखे से , प्रताड़ना से ,हार से और
असहायता से निजात पाना क्या पर्याप्त नहीं है ? उसके बाद भी
एक पत्ता तक नहीं हिलता है मेरी अनुमति के बिना ,मेरी छत के नीचे ।
रंभा के
विवाह और संबंध के स्वेच्छाचार को वह बिलकुल भी तरजीह नहीं देते ,मगर ज्यादा हठधर्मी भी नहीं बनते । वह मर्यादा तोड़ हिप्पी न बन जाए , बस उनका इतना
ही कहना है । रंभा के अपने प्रेमी के बारे में तर्क सुनोगे ? उसके
मतानुसार वह एक परिपक्व भद्र इंसान है और आजकल के आदमियों में ‘डान-जुआन’ प्रतिभा ज्यादा देखने को नहीं मिलती है , वह उन
सद्गुणों और प्रतिभा से निखरे हुए है । केवल धनवान और प्रतिष्ठित ही नहीं ,उनकी
विचारशक्ति का भी कोई मुकाबला नहीं । उनके अदब की विभवता और आचरण की सौजन्यता किसी
विदेशी इत्र की तरह महकती है । उनके मत से आजकल की युवा-पीढ़ी के पास प्रेम
जैसी चीज अत्यागत अशिष्ट हो गई है । वह प्रेम-निवेदन
को ब्लासफेमी कहती है ।
उस समय तुम न
तो धनी थे और न हीं प्रसिद्ध हुए थे । मैं तुमसे प्यार करने लगी थी सिर्फ
तुम्हारे लिए और तुम्हारे प्रणय-प्रार्थना के कालेजादू के लिए
और इन अनेक सालों से तुम भी इस
विद्या में पारंगत हो चुके होंगे , मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं। तुम तो वही प्रेमी
हो जो सहज से नहीं मानने वाली प्रेमिका को पाने के लिए तांत्रिक की शरण में जाते
थे । प्रेम में सफलता नहीं मिलने पर किस तरह विचलित हो जाते थे ! एक दिन ऐसा भी था
कि मैं तुम्हारे आँसू पोंछकर तुम्हें ढाढस बँधाती थी । मगर तुम तो थे वही
हरदम रोने वाले प्रेमी । कई बार ऐसा लगता है मानो तुम चित्रगुप्त को भी हंसा-हंसाकर
नारियों की गुप्त चरित्र पंजिका लिखने में व्यस्त रखते होंगे । प्यार करने के लिए
इतनी घुमाने फिराने वाली बातें क्यों ! क्या तुम कभी भी सहज भाव से सचोट प्रेमी बनने के लिए संकल्पबद्ध नहीं थे ? यह कैसा
प्यार , जो उड़ा ले जाता है पार्क के नकली झरने को न्यूयार्क की नीली रोशनी
में ? शायद यही कारण है कि मैं तुम्हारे प्यार को श्रद्धापूर्वक याद नहीं
कर पा रही हूँ । जब भी मैं याद करती हूँ ,मेरे मन में
जहर घुल जाता है । इसलिए तुम्हारे आने की खबर मिलने पर भी अपना एक कदम बाहर
नहीं निकाल पा रही थी ।
मगर तुम तो
जानते थे रंभा का वंश-परिचय ? रंभा मेरी बेटी है , यह तो तुम्हें पता
है ! फिर भी, फिर भी तुमने यह प्रयास कैसे किया ? हम दोनों हम-उम्र है , मगर हमारी भावना और सोच में इतना अंतर क्यों ? तुमने
सावित्री से कहा कि तुम मुझे मिलना चाहते हो, और वह भी
मुझे यह हृदयबोध कराने की कोशिश कि अब तुम ओड़िशा के एक विख्यात सितारे हो । पुराने
प्यार की स्मृतियाँ मूल्यहीन हैं । अगर मूल्यहीन हैं तो फिर रंभा
को लेकर इस प्रतिशोध का क्या अर्थ ?
अगर तुम चाहो तो तुमसे
मिलने के लिए मैं तैयार हूँ । सिर के बाल रंग कर ,चिबुक ऊपर
खींचने से मैं भी कुछ दिन मैं खूब सतेज दिखने
लगूँगी । चौसठ साल में चौसठ काम-कला के लिए अपने
आप को तैयार कर दूँगी । और ऐसे भी तो तुम मुझे प्यार करते थे । और अब हम
घंटों-घंटों तक बात कर सकते है कई विषयों पर । गर्मियों के दिनों में प्रचंड उमस के दिन के बाद जैसे विलंबित रातों में एक शीतल
हवा का झोंका आता है और अपने साथ ले
आता था सुगंधित फूलों की खुशबू । हम दोनों सम-वयस्क, फिर से प्रेम भी संभव है ।
फिर से तुम रख सकते हो तिकोने टेबल के ऊपर लाल जिनेलिआ फूल और मुझे निर्वस्त्र कर
सकते हो आँधी की तरह । अगर यह इतना महत्त्वपूर्ण है तो मैं सहमत हूँ । तुम रंभा को
अपने आप से विछिन्न कर दो ,प्लीज !
जयद्रथ ! इसी
नाम से मैं तुम्हें पुकारती थी और पूछती थी कि तुम्हारे दादाजी ने यह नाम ही क्यों रखा ? भले ही तुम ‘जय’ के नाम से प्रचारित हो गए , मगर जयद्रथ
का इतिहास तो अंत में रह गया !
जवाब जरूर
देना, जितना जल्दी हो सके ।
इति
चित्रांगदा
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