बरसात में
बरसात में
मटमैले पानी के ऊपर फन उठा रहा है जैसे क्रोध के फेन । बाढ़ की हवा
नहीं मानती है ज्वार को ।
समुद्र के किनारे एक छोटा-सा गाँव , जहां कोई पहाड़ नहीं । मगर कतारबद्ध ताल के पेड़ हैं, बहुत ऊंचे-ऊंचे नारियल के पेड़ है ।
धान के खेतों और गन्ने की क्यारियों के भीतर होकर सँकरे मिट्टी के
रास्ते और मेड़ । लगातार बारिश के कारण जैसे वह ढह-सा गया है । भारी गाड़ी का चक्का
दब जाने से गाँव के लोग दौड़ कर आते है उसे कंधे देकर उठाने के लिए । केले के डंठल
का केवल ऊपरी हिस्सा दिखाई देता है, मतलब आदमी की
ऊंचाई जितना पानी । इस कीचड़ वाले रास्ते ही एक मात्र भरोसा ।
वे लोग आए हुए थे दिल्ली से , मगर गाड़ी के
आगे बढ्ने का और सवाल नहीं थे । रास्ते में घुटनों तक पानी , यान-वाहन खड़े रहने के सिवाय और कोई चारा नहीं ।
इतना अचानक पानी बढ़ जाएगा और एक गाँव से दूसरे गाँव जाने के रास्ते में पानी ही
पानी ऐसे बांधकर रखेगा , इस तरह की
आशंका नहीं थी उन लोगों को । गाँव के लोग पानी में फिसल जाने से रोकने के लिए
उन्हें एक-एक डंडा लेकर अपना रास्ता दिखाते हुए गाँव के पक्के स्कूल-घर में ले गए
। मगर गाड़ी के अंदर मिनरल पानी की बोतल अब रह गई । कितना भी पानी था उसमें, मगर जहां-तहां एक बूंद पानी न पीने वाले वीरेंद्र
मिश्रा , बाढ़ के समय गाँव का पानी कैसे पी
पाएंगे ?
वास्तव में वह गाँव में कभी पले-बढ़े नहीं थे , केवल प्रशासनिक सेवावृति में भर्ती होने के कारण
उन्हें बीच-बीच में गांवों को जाना पड़ता ,मगर वहाँ की
कोई भी चीज मुंह में नहीं लेते थे वह कभी भी । इसलिए बहुत समय तक उबले हुए पानी की
चाय पीने की इच्छा जाहिर की । लगभग चालीस
मिनट के बाद चाय तैयार कर काँच के गिलास में उन्हें देकर खातिरदारी की गई । लाल
चाय । क्योंकि बाढ़ के समय गाँव में गाय का दूध मिलना एक सपना था । उसी समय खबर
मिली कि आगे का रास्ता पानी की तेज रफ्तार से लगभग बह गया है । लौटने के रास्ते
में भी अब कमर तक पानी । चाय के ऊपर चाय पीने का अभ्यास भी छोड़ना पड़ेगा कुछ दिन के
लिए । उन्हें आखिरकार चार –पाँच गाँव परिदर्शन कर रिपोर्ट देनी पड़ेगी । अर्थात
पानी से घिरे अस्वास्थकर परिवेश में अंतत पंद्रह दिन । स्कूल के बरामदे में गाँव
के बूढ़े और युवक सभी इकट्ठे हुए थे ,वे लोग उन्हें
ले गए हेडमास्टर के प्रकोष्ठ में । कितने सालों
से रंग-रोगन नहीं किया गया उस बिल्डिंग में , लकड़ी की पुरानी आलमीरा सब, और एकमात्र
सन्दूक , जो स्कूल का सारा विवरण देता है ।
दीवारें भीगी हुई और विवर्ण । अभी तक बाढ़ का पानी नहीं छू पाया है , फिर भी ज्यादा समय नहीं है ,सभी एक स्वर में बोले । बरामदे में धुआँ उठ रहा था
चूल्हा की गीली लकड़ी से। उसी समय गाँव का सबसे धनवान व्यक्ति नकुल मंगराज आ पहुंचा, और दोपहर के खाने के लिए अपने महल में खाने न्योता
दिया। अब उनका गला रुद्ध हो रहा था । उन्हें इतना कष्ट कभी नहीं मिला था ।
तभी गाँव का सबसे धनी व्यक्ति नकुल मंगराज वहाँ आकर पहुँच गए और
दोपहर का खाना उनके घर खाने का अनुरोध करने लगे । नकुल मंगराज का बुनियादी चेहरा , बहुत लंबे-चौड़े शरीर वाला सुदर्शन मनुष्य । धोती
और सफ़ेद कमीज पहने ,कंधे पर पांडिचेरी झूला लटकाए ,सच में जैसे एक स्टाइलिश स्टेटमेंट ग्रामीण परिवेश
में । उज्ज्वल कपाल और उच्च-वंशीय व्यवहार । उसने वीरेंद्र बाबू का सम्बोधन किया ,जैसे बहुत दिनों से परिचित दोस्त हो । दोनों आँखों
में प्रखर ज्योति एवं सामान्य कौतुक मिश्रित । किसी के आगे सिर झुकाने वाला मनुष्य
नहीं थे वह और ऐसे भी कोई आवश्यकता नहीं थी उनकी ।
वीरेंद्र बाबू ने दुविधा में कहा, “ आप क्यों व्यर्थ में परेशान हो रहे हो ? हम लोग तो सरकारी कर्मचारी है , ऐसे दुर्विपाकों का कई बार सामना किया है ..... “
उनकी बात को बीच में काटते हुए नकुल मंगराज बहुत गंभीरता से बोले , “ हो सकता है , मगर आप जब स्वयं स्वस्थ रहेंगे , तब जाकर हम लोगों की सेवा कर पाएंगे । इसलिए यह हमारा जरूरी दायित्व
है । तकलीफ में है , सोच कर ऊपरी-ऊपरी परिदर्शन करके चले जाएं तो इस
बात का अंतत मैं अनुमोदन नहीं कर पाऊँगा।”
यह बात वह इतने अधिकार से बोल रहे थे कि अचानक दोनों के भीतर अहंकार
एक अदृश्य दीवार के रूप में द्वंद्व करते दिखाई दिया । फिर भी समय की संवेदनशीलता
को देखते हुए और गाँव वालों के आतिथ्य पर
वास्तविक निर्भर होने के कारण सचिव महोदय चुप रहे । कुछ समय के बाद वे मंगराज के
प्रासाद की ओर रवाना हो गए ।
मंगराज के प्रासाद के सामने ही है गाँव का प्राणकेंद्र चौपाल । कंधे
तक ऊँचा चौपाढ़ी ही ग्रामीण संस्कृति की जल-छबि , यहाँ पर सभा की बैठक भी होती है ,दुर्गापूजा होती है ,न्याय-पंचायत
भी लगती है । और अभी यहाँ जमींदार के घर का दातव्य भोजन सारे गाँव के लोगों को ।
बाढ़ के समय हर किसी की एक ही स्थिति - –भूख ,प्यास सभी एक
समान । पाँवों में नए वुडलेंड जूतों के अंदर घुसते कीचड़ के पानी से पूरी तरह बरबाद
हो गए, पता चला वीरेंद्र बाबू को । पेंट को
घुटनों तक खींचकर गाँव के लोगों के साथ पैदल चलना आरंभ किया । रास्ते में
गाँववालों की छोटी-छोटी बातें सुननी होगी । पूरी सावधानी के साथ चल रहे थे वह । थोड़ी देर बाद एक बड़ी तालाब , जिसे बांध रखे थे नारियल और केले के पेड़ों के
गोलाकार बाड़ ने । गाँव के मंदिर और चबूतरे तक गोलीपानी । चौपाल की तरह उस देवालय की उम्र भी दो सौ साल
के आस-पास ।
पंगत में सचिव का इंतजार करने वाला अवश्य कोई नहीं था , एक –एक खाना खाकर उठकर चले गए थे । मंगराज के साथ
खाने बैठ गए वीरेंद्र बाबू और यहाँ से शुरू हुआ लगभग चार दिन रुकने का सिलसिला ।
हर दिन मंगराज अपने बड़े अलसिसियन कुत्ते
को लेकर पहुँच जाते है और गाँव के लोगों की बालूचर हुई कृषिभूमि के हिसाब बताने
लगते थे । क्षति की भरपाई के लिए सरकारी तालिका के नत्थी पत्र में लिखित रूप से
दर्ज करा देते थे । वह एक अत्यंत ही विवेकी और उच्चशिक्षित , न्यायवान पुरुष थे , इस संदर्भ में वीरेंद्र बाबू का कोई द्विमत नहीं था । चार दिन के
बाद रास्ता खुला , सरकारी चूड़ा और चावलों के ट्रक आकर
पहुँचने लगे ।वीरेंद्र बाबू के साथ गाँव के दूसरे आदमियों के गश्त पर जाते समय
तागिद किया , गाँव का कोई भी आदमी सरकारी अनुदान से
जैसे वंचित न रहे ।
तब तक सारे गाँव के लोग जिंदा रह सके, केवल जमींदार के खुले दिल से किए गए सहायता के खातिर । बूढ़ा-बूढ़ी , औरतें ,छोटे बच्चे ,सभी ने उसके प्रासाद में आश्रय लिया । उनके
भंडार-घर की चाबी खुली रही रात-दिन । सरकारी अनुदान का चूड़ा और चावल इल्ली लगने और
अखाद्य होने से ऐसे ही पड़ा रहा । फिर से ट्रक आने तक केवल जमींदार पर ही भरोसा ।
जय-जयकार से गूंज उठा, वासहरा ,जमींहरा
परिवार अभी तक जीवित रहे हृदय सभी में ।
वीरेंद्र बाबू दौरे से लौटते समय फिर से रुक गए इस गाँव में एक रात
के लिए । कागजपत्र में जन-धन क्षति का हिसाब लगभग समाप्त हो गया था। मगर सत्तर
.......जमीन के मालिक की तरफ से कोई आवेदन नहीं । वह ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति ,जिसने क्षतिपूर्ति के लिए कोई दावा नहीं किया ।
पूरे गाँव के खाने पीने का दायित्व अकेले नहीं संभालते कारण नकुल जमींदार की
प्राणप्रिया पत्नी शय्याशायी हो गई थी , इसलिए उसी
शाम पालकी में बिठाकर उसे अपने पित्रालय भेज दिया गया । निसंतान इस दंपति के
क्षयक्षति की बात किसी के मन में नहीं आई । वे तो चलते-फिरते देवप्रतिमा बन गए थे , क्या कोई ईश्वर को मनुष्य सोच सकता है कभी ?
तथापि ,वीरेंद्र बाबू इतने दिनों का आतिथ्य और
आँखोंदेखे परोपकार को अनदेखा करने जैसे मनुष्य नहीं थे । बिना किसी प्रत्याशा में , उचित समय पर
,उचित परिस्थिति में दूसरों का उपकार
करने को सच्ची सहायता कही जाती है । दूसरे दिन वे लौट जाएंगे राजधानी । प्रासाद
में नकुल मंगराज नहीं थे । नौकर-चाकर यंत्रवत काम में लगे हुए है । सुमित्रा देवी
को छोडकर सवारीवाहक भी लौट आए थे । मगर
जमींदार निखोज ।
सवारीवाहकों ने लौट कर सुबह वीरेंद्र बाबू को एक बंद लिफाफा पकड़ा
दिये । उस चिट्ठी में जमींदार ने उनकी सारी स्थावर संपति को गाँववालों के नाम दान
कर दिया था । मगर वह कहाँ गए ?
उस समय सुबह सिंदूरी हो गई थी । नदी की कलकल लहरों की मर्मर के साथ
बह जा रहे थे एक गाँव के मंदिर की घंटियों
के सुमधुर स्वर और ताल । नदी के तट पर सूर्य उगने तक भी सो रही थी झिलमिलाते नए
चंद्रमा का एक हंसियानुमा एक देव पुरुष की मृत देह । दीर्घ दाढ़ी के अंदर
कमाल के फूल की तरह स्निग्ध मगर निर्जीव एक अर्द्ध स्मित हंसी । जिसके हाथ का
पंजा ग्रेनाइट की तरह सख्त मुट्ठी जैसा, जो मरने पर
भी हाथ फैलाकर नहीं मांग पाता किसी से, कुछ भी ।
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