पत्थर में बदला एक ताजा सपना


पत्थर में बदला एक ताजा सपना

 ( मोनालिसा जेना ) 

      मैं इतनी बुरी तरह से टूट चुकी थी कि मेरे सारे शब्द जड़ बन गए थे।  मैं अपने अंदर सारी संगीतमय तंत्रिकाओं को अदृश्य होते अनुभव कर रही थी ।  जब शब्द मौन हो जाते हैं तो उनकी जगह रंग सहायता करने लगते हैं ।  विभिन्न रंगों को परिभाषा देकर वे अपने को उनमें समाहित किया जा सकता है  फिर भी चित्रकला में कुछ मौलिक कुशलता का सीखना जरुरी है, अंततः आत्मा का अनुशोच सबको पिघलाने के लिए । एक आदमी के स्पष्ट प्रेमालाप और समर्पण के बाद अचानक उसके पलट जाने का रहस्य तथा अवसाद   प्रेम मेरे जीवन में कितनी अहमियत रखता था, उसे जानने से पहले ही उसने मेरा  परित्याग कर दिया जब उनकी वही भाषा , वही भरोसा एक दूसरी युवती को देने के जब मुझे ठोस प्रमाण मिले तब वास्तव में मेरा क्षोभ लहरों से किनारों के कटने जैसा लगने लगा।  सारे शब्द मुझे बहुत दंतव्य और कठिन लगने लगे,जो केवल कष्ट ही देते हैं

उस समय किसी ने मुझे एक प्रसिद्ध चित्रकार से मिलने का प्रस्ताव दिया था, जो प्रेम और विच्छेद के चित्रों को बनाने में अत्यंत निपुण थे  मगर मुझे उनसे मिलने में बहुत संकोच हो रहा था, क्योंकि उस समय वे किसी से मिलना-जुलना पसंद नहीं करते थे । मेरी अत्यंत परिमार्जित भाषा  में लिखे पत्र का प्रत्युत्तर नहीं देना अभद्र समझती थी और उन्होने भी मुझे साफ शब्दों में कहा कि मेरे ऐसे प्रश्न पूछना भी अभद्रता ही है ।  मै उसे चित्रकला सीखना चाहती थी , मगर धीरे-धीरे यह बात गुरुत्त्वहीन होने लगी

एक अदृश्य वलय  में उके साथ मेरा  मानसिक सम्बन्ध गहराने लगा था ।  बिना देखे भी उन्हें पूरी तरह देख पा रही थी मैं मैंने उसे कहा था , आपके बाल निश्चय ही कम उम्र में  सफ़ेद हो गए हैं मानो मैं उन छः  महीनों के दिन-रात के विषयों से अवगत थी!  इस तरह की अनेक धिभौतिक घटनाएं हमारे जीवन में घटने लगी थी। मैं उके बारे में,के परिवार तथा बंधुवर्ग के सारे विवरण के बारे में सटीक ढंग से आंकलन कर पा रही थी। इस वजह से मेरा उके साथ एक आलौकिक सम्बन्ध स्थापित हो गया था।  मगर इस अंतरंगता को क्या प्रेम क्या कहा जाता है ? जिस दिन मैंने नसे यह बात पूछ ली, बस उस दिन ही  उन्होने मेरे साथ सारे सम्बन्ध तोड़ दिए , फिर से एक बार प्रेम में असफलता ......!



मैं क्यों ऐसे पुरुषों पर विश्वास करती हूँ ? प्रेम करती हूँ ? मैं किसकी तलाश में रहती हूँ  ? वे लोग अचानक इतने दूर क्यों चले जाते हैं ? दर्पण के सामने खड़ी हो गई, जिसकी कभी मैं आदी  नहीं थी । मैं सही में बहुत निरीह दिख रही थी । मेरे होने वाले प्रेमी ने भी मुझसे कहा था , " तुम मेरी नन्ही प्रेमिका ....."  और उन्होने मेरा हाथ पकड़ा पहली और आखिरी  बार। शायद मुझे पता नहीं था कि नारी पुरुष के बीच प्रेम सम्बन्ध क्या होता हैं ।  मगर यह विफलता मेरे लिए सही नहीं जाती थी  मैं तो तस्वीरें बनाना सीखकर अपने हृदय की ज्वाला को शांत करना चाहती थी। क्यों यह प्रसिद्ध चित्रकार व्यर्थ में, मुझे इस दिशा में खींच लाये ?   प्रेम का मृदु आलोक दिखाकर मुझे अस्वीकार कर दिये

के बार-बार मना करने के बाद भी मैं उनसे मिलने गई ।  बिखरे घुंघराले बालों के अंदर एक सुन्दर पुरुष का भग्नावशेष-बहुत ही विवश, मगर उकी दोनों आँखों में एक अजब चमक !  भले ही, गंभीर संतापों के कारण उका अदम्य पौरुष मलिन दिखता था,मगर उनकी होंठों की गुलाब हंसी के साथ वह जैसे असमय में अकस्मात बूढ़े हो जाने की भंगिमा उसके चेहरे पर बिखर रही थी । किसी भी आदमी की अपेक्षाकृत लम्बी अँगुलियां  मुझे पहले आकर्षित करती हैं उनकी लंबी उँगलियाँ  देखकर मैंने सोचा था , हो ना हो , वे असाधारण  बुद्धि  के अधिकारी है, कलाप्रिय ।  महीन रेशमी ढीला कुर्ता और धोती पहने हुए वे  मुझे देवपुरुष के तुल्य दिख रहे थे।के कृशकाय शरीर में अभी भी प्रेमी-पुरुष की स्वतंत्र आभा विभूषित हो रही थी । मुझे उस समय ऐसा लगा जैसे वे मेरे बहुत पुराने जान-पहचान वाले हो और  अपने कक्ष से भटके दो नक्षत्रों की तरह हमारी आत्माएं एक दूसरे के अनुसंधान में लिप्त रहने लगी हो। प्रेम मेरे लिए एक उच्चतर स्तर में प्रवेश करने के लिए वासना जैसा था ।  मैंने उन्हें गहरे हृदय से प्यार किया था,यह बात मुझे हृदयंगम हुई । मैंने उसे एक सीधा सवाल किया , " मेरे प्यार का इजहार करने से पहले आपने मेरे साथ अपने सम्बन्ध छिन्न क्यों कर दिए ? आप सोच सकते हैं कि इस बारे में आपकी कैफियत मेरा अधिकार है।"  ऐसा कहते समय मुझे आश्चर्य हो रहा था कि एक धूसर मध्यान्ह में पहली बार मिलने आए एक प्रिय पुरुष को इस तरह के वाक्य कोई कैसे कह सकती थी  उस दिन रिमझिम बारिश और प्रणयासक्त नारंगी रंग की धूप का  खेल चल रहा था । ऐसे मौसम में प्रेम भी हरा होता है , सजीव होता है । मगर मैं एक चक्रवात की तरह आ गई उकी  निस्तरंग अद्रवणीय  शून्यता में । वह मेरी तरफ देख रहे थे निर्वाक , निश्चल

मैं की अंगुलियाँ पकड़ने की चाहत को रोक नहीं पाई और उनके हाथों में फूट-फूट कर रोने लगी । मगर मेरे गर्म आँसुओं से उके हथेलियों की बर्फ जैसी शीतलता मिट नहीं पाई । धीरे - धीरे वे मेरे शैंपू किए सुगन्धित खुले बालों में आधे प्रेमी , आधे गुरुजन की तरह सयत्न अंगुलियाँ फेरने लगे।  ऐसा लग रहा था मानो शरीर की शुद्धता से मन की शुद्धता का आकलन किया जा सकता है। कुछ समय बाद वे कहने गे , " तुम बहुत अच्छी हो, इसलिए जानबूझकर मैं तुमसे उखड़ा हुआ रहा । मैं तुम्हें किसी भी हालात में हानि नहीं पहुंचा सकता ।  तुम खुद नहीं समझ पाओगी कि मै तुम्हे कितना प्यार करता हूँ। यहाँ तक कि तुम जिसे खोया हुआ समझती हो, वह भी तुम्हें गंभीरता पूर्वक प्यार करता है। " 
मैं रुआंसी होकर कहने लगी , " आप ऐसे झूठ मत बोलिए ।जरूर मेरे अंदर कोई कमी होगी अन्यथा मेरे भाग्य में ऐसी घटनाएं क्यों घटती ? " 

वे कहने लगे, "तुम्हें सच में नहीं पता है कि तुम कितनी भाग्यशाली हो। तुम्हें नहीं पता कि अनेक सत्पुरुष अँधेरे में रहकर ही तुम्हारे लिए तरसते है। तुम कभी जान नहीं पाओगी । मेरी बात छोड़ दो । तुम जो देख रही हो वह केवल एक कब्र का स्मृति-फ़लक है। मेरे सपने, मेरी आत्मा , मेरी सृजनशीलता और मेरे भविष्य का भी ! मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दे पाऊंगा । शायद कुछ दे पाता अगर तुम्हारे जैसी कोई मुझे बीस वर्ष पहले मिली होती । " 

इस बार मैं अपना बदन उठाकर उसकी तरफ देखा , " ऐसा क्या हुआ था बीस साल पहले ? " 

की आँखों में आंसू नहीं थे  बल्कि ज्वालामुखी के लावे के आंशिक निशान थे। " 
वे कहने लगे, " यह सब जानकार क्या फायदा ? " 
उस समय मैंने देखा उके हल्के-हल्के उजाले वाली कमरे के एक कोने में रखी हुई थी एक अद्भूत तस्वीर---गहरे-नीले और सरसों के फूलों जैसे रंग वाली। वह तस्वीर चित्रकार के पंजीभूत शोकाकुल मानसिक हताशा भरे एक नेम प्लेट की तरह दिख रही थी । ऐसा लग रहा था मानो वह उसका आखिरी कैनवास हो । एक समय वे अपने समकालीन कलाकारों से बहुत आगे हुआ करते थे। कुछ वर्ष उन्होने पेरिस में बिताए  थे और उस भूखंड की मनोरम शैली से  बहुत प्रभवित हुई थी । सुनहरे तथा हरे रंग के विस्तीर्ण तरंगों जैसे घास के मैदान , पंक्तिबद्ध लदालद फूलों से भरे प्रशस्त छायाच्छादित  पथ, लोहे की रेलिंग वाले  फ्रांसीसी निपुणता से बने सुंदर चित्र उन्हें लुभावने लग रहे थे । उन सारी यादों को छोड़कर वे भारत लौट आए। देश की मिट्टी की महक उन्हें ज्यादा अच्छी लग रही थी ।

 " उस कड़ाके की ठंड वाले दिसंबर के अपराहन में  जब सौंधी मिट्टी की धूल जब और हमारे ऊपर धीरे-धीरे छाने लगी , तब निद्रालू  चिड़ियाँ अपने नीड की ओर जाने के लिए छटपटाने लगी थी बैंगनी मौसम ... " 
इतना कहकर अचानक वे चुप हो ग । क्योंकि वह अपनी गोपनीय बातों को मेरे सामने लाने की नहीं सोच रहे  थे । एक ऐसा भाव-प्रवण वक्तव्य जिसकी वास्तविकता पर किसी भी तरह का कोई झूठ का आवरण नहीं था। एकदम स्पर्शकातर  जिसमे कभी सब कुछ उलटने-पुलटने का सामर्थ्य हुआ करता था......।  

स हृदय विदारक तस्वीर की तरफ इशारा करते हुए आरोप लगाने के लहजे में कहा , " आपने ऐसी तस्वीर क्यों बनाई ? " 
वे हँसकर कहने लगे , " यह मेरी अंतिम तस्वीर है , द लास्ट सपर , की तरह " 
मैंने विद्रूपता से कहा , " नारी के साथ अक्सर पुरुष ऐसी आत्मकरुणा  से छलकपट क्यों करता है सारे चित्रकार मंजीत बाबा की तरह क्यों नहीं होते ? " 
उन्होने मुझसे पूछा , " क्या तुम उनसे कभी मिली हो ? " 
मैंने उत्तर दिया , " हाँ । और मैंने उनके गुलाबी पंखुड़ियों जैसे कोमल हाथों से आशीर्वाद भी पाया है। उनके  चित्रों और आपके चित्रों में एक चीज अवश्य सार्वजनिक है- वह है आत्मा की उच्चता। और यही वजह है जिसके लिए मैं आपसे मिलना चाहती थी।मगर यहाँ आप " गुएरनिका " बनाने  में व्यस्त हो ............। ." 

एक बंद दरवाजा खोलने की तरह उन्होने वह तस्वीर वहाँ से हटा दी । एक भग्नावशेष के परदे के पीछे छुपाकर रखी थी,उन्होने अपनी सबसे  मूल्यवान सम्पदा । एक अत्यंत ही सुन्दर महिला का चित्रपट्ट । उस महिला की आँखों में ऐसा कौन-सा सम्मोहन था कि मैं बरबस जाकर उसे छूने  लगी, सके बिखरे बाल , आँख , नाक , होंठ और पता नहीं, क्यों छूते ही मुझे सिरहन लगने लगी ।
मैंने उसे पूछा , " इतनी सुन्दर तस्वीर को आप इस तरह छुपाकर क्यों रखे हो ? " 

" जिसकी यादें अगर आपको पूरी तरह भस्मीभूत कर दे, उन्हें छुपाकर रखने के अलावा आपके पास गत्यांतर नहीं होता है । वास्तव में आज मैं निस्व पराजित हूँ, सम्पूर्ण रूप से पराजित हूँ  ।फिर भी कह रहा हूँ  नारी की कोई तुलना नहीं । "

प्रत्येक नारी में एक सहजातशक्ति होती है लाखों दुर्भाग्यों को झेलने की। मगर आश्चर्यजनक तरीके से वह भी कैसी प्रलोभन की सामग्री भी हो सकती है ! मदर टेरेसा ने केवल तीन साड़ियों में अपनी सारी जिन्दगी बिता दी और मै निर्वस्त्र हो गया एक नारी के प्रेम में ................" 

" वह नारी क्या आपकी प्रेमिका थी ? " 
" हाँ , तस्वीरें बनाने की महेंद्रबेला थी वह मेरी ।ईश्वर की दया से जमींदारी परिवार का होने से मेरे पास धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी। हमारे कुलीन परिवार में मुझ पर सवार चित्रकारी के नशे से कोई खास असंतुष्ट नहीं था। " 
वे बहुतली  दिख रहे थे , यद्यपि मैंनकी वाग्मिता से प्रभावित हो रही थी। 
" जानती हो, वह भी उज्जवल सांवले रंग की थी, जहां कोई भी पुरुष हार जाता है ।बहुत ही खूबसूरत , बेपरवाह और असामान्य कामोत्तेजक थे उसके इशारें  ! मेरी मीठा-पान  खाने की आदत उसकी वजह से ही है। पहली बार वह मुझे अपने पति के साथ मिलने आयी थी । पति एक करोडपति इंजीनीयर था, वह अपनी सुन्दर स्त्री की तस्वीर बनाना चाहता था । पहले-पहले उसने मेरी तस्वीरों की भूरि-भूरि प्रशंसा की।घंटो भर बैठकर वह सिटिंग दिया करती  थी । जाने-अनजाने धीरे-धीरे हमने अकेले में मिलना शुरू कर दिया। ऐसा लगता, मानो सारी प्रेम कहानियाँ एक जैसी ही होती हैं, तुम्हारे होश में आने से पहले ही वे तुम्हें अपनी साँसों में निस्व कर देता है । एक दिन स्टूडियो में कोई नहीं था । सिर्फ मैं और वह ।  उसने अचानक खूब जोर से मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया और मुझे बारंबार चुम्बन देने लगी मैं किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गया था और उल्लासित भी । क्योंकि मेरी पत्नी जो दीर्घ समय तक मेरी प्रेयसी थी , उसने मुझे कभी भी इस तरह आलिंगन नहीं किया था ।  मुझे इस नारी के अबाध संभोग की चाह मदमस्त कर रही थी  मै समुद्र के ज्वार के उफान में तैरते हुए जा रहा था एक दूर दिग्विलय की ओर । अनेक दिन तक हम शारीरिक सुख और संभोग में मस्त थे , जैसे इससे बढकर अधिक गुरूत्वपूर्ण कोई चीज ही नहीं थी । उस समय मुझे भी लगने लगा कि यही दुनिया की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है  मेरे सहज संकोच को कितने सहज भाव से उसने दूर कर दिया था ! आनंद क्या चीज होती है उसने मुझे समझाया था । जाने-अनजाने में उसने मेरे जैसे उद्दाम आदमी को अपने वश में कर लिया था। शुरू-शुरू में देहज आकर्षण इस तरह मोहित करके रखता है , मगर वास्तव में उससे प्रेम का निजस्व और निरीह्पन धीरे-धीरे खत्म हो जाने लगता है । यौनता को रसिकता का रूप देकर क्या वह भी जीत सकी ?

 धीरे-धीरे उसने मुझे अपनी सारी निजी बातें बतानी शुरू की एक कदाचारी आदमी से विवाह कर,  बिना सम्मति से सहवास की यंत्रणा । उसका पति उसे बुरी तरह पीटता था , पीट-पीटकर शरीर पर लाल चकते बना देता था । वह रोती थी , मैं सहन नहीं कर पाता था। मै कहता था , " तुम उसे छोड़ क्यों नहीं दे देती हो ? " 
पति का अपनी पत्नी को गाय-भैंस यों की तरह पीटने का नजारा हमारे आभिजात्य परिवार में नहीं था । मै किसी भी नारी का दुःख सहन नहीं कर पाता था । हर समय वह कहती थी , " पति को तलाक देने से दुनिया मुझे जीने नहीं देगी । वह मेरी ढाल है । जब तक पति का परिचय है, मैं सुरक्षित हूँ । रात-रात भर यही कामना करती हूँ  काश वह और वापस नहीं आए तो  .....।  मैंने उसे क्या नहीं दिया  ? सुन्दर स्त्री-सुख और दो सुन्दर  बच्चें । "  

एक धनवान पति की सुन्दर पीडिता पत्नी के प्रेम में मैं अँधा हो गया था।  
मेरे स्टूडियो में उन दिनों समाज के विभिन्न-वर्गों के व्यक्ति विशेष  का आना-जाना लगातार बना रहता था । अनेक प्रभावशाली और पैसे  वाले लोग मेरी तस्वीरों का आदर करते थे , और उनकी अच्छी पहचान कर सकते थे , उनके खरीदार थे।  मेरी प्रेमिका उन लोगों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बनाती थी और तरह - तरह की सुविधाओं का वह उपभोग करती थी ,यह  खबर मुझे कैसे पता चलती ? मै एक निर्बोध खच्चर की तरह एक से अधिक सम्बन्ध की अभ्यस्त सुन्दर नारी के अतीत के कलंकित कपड़ों का बोझ उठा कर चलता था । यह केवल उम्र का तकाजा था, जो यौवन की परिपक्व पारंगता को फीका कर देता है

धीरे-धीरे उसने मुझसे रुप-पैसे मांगने शुरू कर दिये  उसका पति कभी भी उसे मन मुताबिक़ सामान खरीदने के लिए पैसे नहीं देता था, परिधान हो या गहने –सारी चीजों पर वह उस पर हजार पाबंदी लगाता था  । उससे भी ज्यादा उसका कठोर अनुशासन प्रिय होना। मैंने दिल से उसके हाथों में अपनी सारी तस्वीरों से अर्जित पूँजी पकड़ा दिया करता था । धीरे-धीरे मांगने की इस सीमा को भी उसने जैसे लांघ दिया ।मैं बाध्य हो गया, कर्जा लेकर उसकी आवश्यकताओं  की पूर्ति करने के लिए । मगर उससे  किसी भी तरह के सवाल पूछने की मुझमें वह कठोरता नहीं थी। इधर मेरा कर्जा बढ़ रहा था तो उधर उसका लोभ ।   क्रमश मैं निस्व होने लगा और मिलन के वे सारे मुहूर्त केवल जिस्म के मिश्रण नजर आने लगा। मेरे लिए और तस्वीरें बनाना लगभग असंभव हो गया।

 एक दिन आख़िरकार मैंने निरपेक्ष भाव से उससे पूछा , " इतने पैसे तुम्हें क्यों चाहिए ? " 
वह मुझे कहने लगी , " एक काम कीजिए, आप मुझे अपनी तस्वीरें दे दीजिए। हमारी सोसायटी में कला का खूब आदर होता है। मेरा भी एक वजूद है मेरे पति की वजह से अच्छे पैसे मिलेंगे । आपको किसी भी तरह का कोई अभाव नहीं रहेगा । मैं आपकी सारी तस्वीरों की दुनिया भर में प्रदर्शनी लगा दूंगी.......
तब तक मै अँधा था । असल में, मेरी तस्वीरों पर अपने हस्ताक्षर कर उसने उन्हें अपने कब्जे में कर लिया ।  उस तरफ मेरी किसी भी तरह की कोई सजगता नहीं थी। उस दिन ही आकस्मिक रूप से उसके प्रति मेरा सारा आकर्षण खो बैठा । मेरा कर्ज का भार लक्ष्मण रेखा अतिक्रम कर चुका था । उस दिन के बाद मैं उसकी वासना का कृतदास नहीं बन पाया  और उसके बाद भी नहीं। मैंने उससे कहा " कहो ! तुम्हें कितने रुप चाहिए ?  तुम्हें तो केवल पैसे चाहिए, प्रेम नहीं । " 
वह खूब रोने लगी , मगर मै निर्विकार ।
इसी विवर्तन के दौरान एक पुराने मित्र से मेरी मुलाक़ात हो गई, जिसने अपने सुखी परिवार को इस नारी के प्रलोभन में आकर खो दिया था । उसने मुझे सचेत किया कि मेरी प्रेमिका ने एक एन. जी. ओ. खोला था और उसके माध्यम से अनेक उच्च-पदस्थ अधिकारियों के साथ उसने अपने घनिष्ठ सम्बन्ध बनाए थे । वास्तव में, वह मेरी चित्रकारिता की पूरी तरह से नक़ल हुआ समझ कर एक चित्र-प्रदर्शनी से लौटकर आया था । एक सुन्दर नारी और उसकी अपरूप तस्वीर बना पाना -  कितना खतरनाक संयोजन ! वह मेरे दोस्त को ऐसे ही ब्लैकमेल करती थी, की यह बात  एक दिन उसकी पत्नी के सामने आयी । एक आधुनिक शिक्षित स्त्री होने के कारण बिना कुछ बर्दाश्त किए वह उसे परित्याग कर अपने मायके चली गई।

वह फिर कभी लौट कर नहीं आयी क्योंकि पकड़ जाने के बाद मैं उसके लिए अप्रयोजनीय  बन गया था । मुझे बेमतलब के कर्ज में डूबने की यंत्रणा से ज्यादा कष्ट था कला के प्रति बढता मेरी अविश्वसनीयता । मुझे स्वयं भी आश्चर्य होने लगता था, इतनी आसानी से कैसे मैं उससे नफरत करने लगा ?

मेरे लिए पैसे क्या इतना ज्यादा मायने रखते थे ? कर्ज का बोझ क्या इतना भारी लगने लगा था ? झूठ नहीं कह रहा हूँ ।  के स्वर में थी एक नाटकीय तीव्रता और तीव्रतर व्यंग्य ।  उस नारी की हंसती हुई तस्वीर अब अखबारों , पत्रिकाओं तथा टी. वी. के पर्दों पर छा गई थी। जिसने कभी मुझे प्रेरणा का उत्स बनकर आमोदित किया था ,  मेरी तस्वीरों की पेरिस , लास-एंजेलिस में प्रदर्शनी लगाने की उमंग जगाई थी, उन सारी तस्वीरों पर अब उसके हस्ताक्षर हैं। वे तस्वीरें अब उसकी हैं , ठीक उसी तरह जैसे मेरे बचपन के दोस्त की तीन पीढ़ी वाली  पुरानी हवेली भी अब उसके नाम । मैं मानों किसी सभ्यता की दीमक-बाबी बनकर रह गया हूँ । कितनी सदियों का अभिशाप !

फिर भी कभी-कभी लगता है वह मुझे प्यार करती थी, सच में, प्यार करती थी ।  किसी से भी नहीं डरती थी । मैं अभी तक ऊहापोस में फंसा हुआ हूँ कि वह मुझे प्यार करती थी या नहीं । इतना सहज भी नहीं था , जो वह करती थी ।  बदनामी से भी डरती नहीं थी । वह मेरे लिए अभी भी एक अजूबा रहस्य है । आज भी प्रेम के इस नीले-पीले रंग में विश्वास  की एक किरण मेरे प्रताड़ित प्रेम को दूर नहीं कर पाई। हाँ या नहीं के भीतर उसे एक चंद्रबिंदु बनकर रहना है  प्रेम के लिए अगर मै अंधी तितली होकर मर जाऊं , तब भी वह मंजूर है.... ।
उसकी बाकी बातें एक दीर्घ-श्वास की तरह थी, जो संध्या धूप की तरह जल रही थी उसके प्रेम की उस प्रकोष्ठ में । किसी ने आकर बल्ब जला कर रोशनी कर दी । मेरे जीवन के विनिमय में वह क्षमता नहीं थी जो लौटा देती एक कलाकार का सुख और उसकी तन्मयता । एक कलाकार की असली मौत , उसके उस करुण तस्वीर में एक मृत प्रजापति की तरह । कोई नहीं जानता  उसका रहस्य ...........




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