शेषमृगया


शेषमृगया

फूलवानी के नीले पहाड़ों की पृष्ठभूमि में भटकते हुए अनेक जंगली झरने । मील मील दूर तक फैले साल के घने जंगल । यहाँ पर बीते थे हमारे शैशव के सुनहरे दिन , जहां गायों के गले में झूलते लकड़ी के डिब्बों की आवाज का अनुसरण करते हुए हम पहुँच जाते थे दूरदराज़ गाँव में । माँ कहती थी – बिजली की रोशनी भी हर समय नहीं होती थी , पिताजी के एक्जेक्यूटिव इंजीनियर बंगले में भी । अच्छा स्कूल भी नहीं था उस इलाके में । लोग बहुत ही गरीब । त्योहार के अतिरिक्त किसी के शरीर पर ढकने के लिए पूरा कपड़ा भी नसीब नहीं होता । फिर भी वहाँ जीवन था , जिसे हमने खो दिया है शहर के कोलाहल के अंदर ।

पिताजी की नौकरी के प्रारम्भिक कई वर्ष इस घने साल के जंगलों और पहाड़ों से घिरे अंचल में बीते । भाई का और मेरा जन्म यहीं पर हुआ । स्कूल जाने की उम्र में अवश्य शहर चले आए थे । कैसे थे वे सब दिन ! कितना निर्भेजल ,उपद्रवहीन और असली जीवन  ! सुबह होने का मतलब मुर्गे की बाग , माँ की बारंबार पुकार , मगर कोई विरक्ति नहीं , यंत्रवत हमें स्कूल भेजने के लिए हाँफते नहीं थे । मगर पढ़ाई ,खेलकूद , दिन में जंगलों में भटकना और जंगली हिरणों के पीछे पीछे दौड़ना भी लगा रहता था तब बड़े सबलील ढंग से 
पिताजी की डायरी लिखने की आदत नहीं थी और वह ज्यादा बात नहीं करते थे कभी भी । हमेशा सारी बातों को हँसते-हँसते आसानी से समाधान करना उनकी खासियत थी । उस समय पिताजी लोग  बहुत गंभीर  दिखा करते थे ,पिता का अर्थ –शासन । हमेशा साफ-सुथरे कपड़े और मार्जित स्वभाव । सुबह आठ बजे टोस्ट ,आमलेट और एपल का नाश्ता करने के बाद निकाल जाते थे एक आश्टिन गाड़ी में । भाई और मैं बिस्तर में सोने का नाटक करते हुए इंतजार करते थे कि कब गाड़ी स्टार्ट होगी मानो सच में उसके बाद कोई तागिद नहीं करेगा । मगर पिताजी को देखते ही हम मोहित हो जाते थे । उनका व्यवहार में एक माधुर्य । कितनी लंबी तीखी नाक, दो सुंदर आँखें ! ऐसा लगता था ,जैसे पिताजी के ममत्व की एक छत्रछाया हम सभी के ऊपर रहती थी ,माँ के पल्लू की तरह । पिताजी मेरे हीरो है , हमेशा से हर समय ।
जब मेरा जन्म हुआ था , मैंने माँ को बहुत कष्ट दिया था । रातभर छटपटाई थी और आर्तनाद कर रही थी  बिचारी । पिताजी की बड़ी बड़ी असहाय दोनों आँखों में आँसू छलक आए थे । माँ का हाथ पकड़कर सिर सहलारहे थे पास में बैठकर । उस जमाने में प्रसव के समय पुरुषों के वहाँ उपस्थित रहने का कोई दृष्टांत नहीं मिलता था । मगर मेरे पिताजी उन बिरले व्यतिक्रम व्यक्तित्त्व में से एक थे मेरे जन्म के समय ।
सुना था , उस समय मैं केवल छ महीने की थी । मैं जन्मजात कमजोर स्नेह-कंगाल थी । एक बार जबर्दस्त डायरिया के चक्र में पड़ गई । कोई दवाई काम नहीं आई । तब दूर फूलवानी से ड्यूटी छोडकर कटक आना संभव नहीं था । दो-तीन दिन तक ऐसे ही इलाज चलता रहा । बिना किसी नतीजे के खाना-पीना लगभग बंद होने जा रहा था । बूरी तरह से डिहाइड्रेशन हो गया था । पिताजी बहुत दुखी थे । माँ और रोएगी ,सोचकर उसे प्रबोधन दे रहे थे । मन बदलने के लिए एक बार डिनर के बाद वह जीप लेकर जंगल चले गए शिकार करने के लिए । साथ में दो दोस्तों को लेकर । पिताजी को शिकार का शौक था । निशान अचूक था । और उनका काफी सुनाम भी हो गया था । उस साल तक अवश्य वन्य जीव-जन्तु संरक्षण अधिनियम लागू नहीं हुआ था । हमारे घर में हिरणों के खाल का बहुत उपयोग हो रहा था । सब मेरे पिताजी की बहादूरी के कारनामे थे । हमारे घर में शेर की खाल भी थी बहुत साल तक । अवश्य, मेरे पिताजी उसे मारने के लिए मजबूर हुए थे ,अपनी जान बचाने के लिए ।.एक अव्यर्थ शॉट ,एक सर्चलाइट के सामने बुझ गयी थी उसकी प्रखर ज्वलंत दृष्टि । वे सब शायद और नहीं है हमारे पास । हैं तो केवल कुछ यादें ।
उस दिन लगभग तीन-चार घंटे तक यूं ही जीप लेकर घूमते रहे घाटी-रास्तों में । शुक्ल पक्ष की रात में साल के जंगल में। लंबे-लंबे पेड़ों के तले घने सूखे पत्ते । वन-मुर्गी उन पर चली जाने से भी उसकी मर्मर दुगनी हो जाती है । मगर उस दिन कुट्रा अथवा हिरण की कोई खबर नहीं । बीच बीच में सर्च-लाइट गिराते हुए वह लोग रूक जाते थे ।
पिताजी का मन ऐसे भी मुझे लेकर भाराक्रांत था , उसके ऊपर निष्फल इधर –उधर घूमकर से शिकार करने की उन्मादन निस्तेज हो रही थी ।
ठीक उस समय रात की फीकी रोशनी में रास्ते के किनारे घुटने तक ऊंची झाड़ियों से झलकी नीले रंग की दो निरीह आँखें । पिताजी की धमनियों में शिकारी का खून का प्रवाह चल-चंचल । एक हाथ में टार्च और दूसरे हाथ में  राइफल लेकर वह धीरे धीरे आगे बढ़ते गए वह लक्ष्य स्थल पर । मगर आश्चर्य ! वह जानवर वैसे ही निर्वेद हो कर चुपचाप खड़ा था । भागने की कोशिश करने का थोड़ा-सा भी कोई संकेत नहीं । वैसे ही स्थावर हो कर खड़ा था अपलक दृष्टि से । लगभग दस-बारह फीट नजदीक पहुँचने के बाद भी उसमें हलचल न होती देख पिताजी अवाक होकर करीब से देखने लगे । चाँदनी के धुंधले उजियाले में उसका शरीर साफ और सफ़ेद दिख रहा था । इशारा करके उन्होने ड्राइवर को पास बुलाया और दोनों ने वहाँ जाकर देखा वह हिरण शावक नहीं था , था गाय का एक नवजात बछड़ा । इसलिए उसकी दोनों निरीह बड़ी-बड़ी आँखों में कोई शंका नहीं थी ,विस्मय था ।
वास्तव में बछड़े का जन्म उसी दिन गोधुलीवेला में ही हुआ था । उसकी माँ ने उसे चाट-चाटकर साफ करने का समय भी नहीं पाया था । उससे पहले उसे गाय के उस झुंड के साथ जाना पड़ा था । सुकोमल बछड़ा किंकर्त्व्यविमूढ़ होकर पीछे रह गया था । इस हालत में गाड़ी की आवाज और टार्च की रोशनी ने उसे विमूढ़ कर दिया था । बछड़े को उसकी माँ के पास हस्तांतरण करने का अवकाश भी नहीं था । और उसको इस हालत में जंगली जानवरों का आहार बनने के लिए छोडकर आना भी विवेकहीनता था । अगत्या सभी ने निर्णय लिया उसको वहाँ से ले लाने के लिए ।
घर पहुँचते समय सिंदूरी खिलने का समय था । सभी थके-हारे । मेरा स्वास्थ्य किसी प्रकार की उन्नति होने के बजाए तेजी से खराब होता जा रहा था । माँ के अनवरत अक्लांत सेवा यात्रा के बाद भी मैं मूमूर्षु अवस्था में पहुँच गई थी । कहने का अर्थ सभी ने आशा छोड़ दी थी ।
मेरी तरह और एक प्राण भी उस समय निश्चित मृत्यु के दरवाजे तक पहुँच गई थी । वह थी हमारी पालतू गाय गौरी । पिताजी उसे खरीद कर लाए थे छह महीने पहले मेरे लिए खाँटी दूध की व्यवस्था करने के लिए । केवल तीन दिन पहले उसके एक बछड़े का जन्म हुआ था , मगर मरा हुआ । वह हम सबके लिए बहुत दुखद घटना थी । उसके बाद गाय की हालत बुरी तरह से बिगड़ती गई । वह भी निस्तेज होकर पड़ी रहती थी गुहाल के एक कोने में । जानवरों के डाक्टर का दो समय उसका जायजा लेना और हाई पावर इंजेक्शन देना सब व्यर्थ साबित हो रहा था
। हालांकि डॉक्टर उसकी निश्चित मौत की बात पिताजी को नहीं बता पा रहे थे , यह बात निश्चित थी कि पिताजी मेरे और गाय के मृत्युमुखी अभियान को देख बहुत विषादग्रस्त थे ।
इस नवजात बछड़े को लाकर बछड़ा खोने वाली दुखियारी गाय के पास गुहाल में छोड़ दिया गया । और उसके बाद की घटना आलौकिक थी । तीन दिन तक अन्न जल को न स्पर्श करने वाली मरणासन्न गौरी पलक झपकते ही उठ खड़ी हुई और दूसरे के बछड़े को ऐसे प्यार करने लगी मानो वह उसका खोया हुआ बछड़ा हो ! बछड़े ने भी प्रसन्नचित्त से उसके थन से दूध पीना आरंभ किया । बहुत तेजी से गाय के हावभाव और स्वास्थ्य की अवस्था में सुधार दिखाई देने लगा । डॉक्टर महोदय की तेज दवाइयाँ जो इतने दिनों तक काम नहीं कर पा रही थी , इस बछड़े के आविर्भाव के घटनाक्रम ने एक पल में संभव कर दिखाया । उस दिन पिताजी की उपस्थिति बुद्धि के कारण दो पिंड में मानो जीवन्यास हुआ हो ! हमारे घर के वातावरण की स्वस्थता ने इस बीच मुझे भी संक्रमण कर दिया था ।
उस दिन सुबह से ही मैंने डॉक्टर का इलाज का असर होने लगा । इस गाय का दूध ही मेरा पहला पथ्य बना , जो मुझे जीर्ण हुआ और थोड़ी ही दिनों में, मैं स्वस्थ होने लगी ।
बहुत दिन तक यह बछड़ा मेरे खेलने का साथी बना । पिताजी की अभेद्य गोली से उस बिरले संदिग्ध मुहूर्त में हम तीनों के जीवन को मानो नूतन जीवन मिला हो । बहुत दिनों तक वे दो निरीह नयन पिताजी को तन्मय कर रहे थे  और वे ही थे  उनकी शेषमृगया । पिताजी कहते हैं, हमारे देश में भले ही यह कानून लागू नहीं होता , तब भी वह कभी फिर से बंदूक नहीं पकड़ते । पिताजी मेरे सारी उम्र का हीरो है, ऐसे, और अनेक संदर्भ में । 









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