किराये का मकान


किराये का मकान
सम्बलपुर से पिताजी की बदली हो गई थी भुवनेश्वर। मेरा एम॰ए॰ फाइनल था,इसलिए मैं हॉस्टल में रुक गई। मेरी माँ,पापा,बड़े भैया और लिटि सभी लोग भुवनेश्वर आ गए। एक किराये के घर में रहने लगे। चिंतामणीश्वर मंदिर के आस-पास। सावित्री मौसी और हरेकृष्ण मौसा हमारे दूर के संबंधी थे, इसलिए पापा ने यहाँ रहना पसंद किया। दो शयन-कक्ष ,एक अतिथि-घर के साथ-साथ छोटे रसोईघर एवं स्नानघर वाले मकान का किराया दो हजार रुपए। उस समय इतने पैसों में तो शायद इससे भी ज्यादा अच्छा घर मिल सकता था। लेकिन इतना निरापद और बंधु-वत्सल शायद मिलना सहज में संभव नहीं होगा, इसलिए इस बारे में मम्मी-पापा ने निश्चय कर लिया था।
सावित्री मौसी की मीठी-मीठी बातें सुनने से कोई भी मनुष्य एक क्षण में उन्हें अपना सोचने लगेगा , यह बात सुनिश्चित थी । हरि मौसा कृषि विभाग में क्लर्क थे। अभी सेवा-निवृत हुए थे। उनकी दो बेटियाँ , शादी नहीं हुई थी।

पापा की टूरिंग की नौकरी। भैया भी हमेशा बाहर रहते थे। लिटि और माँ बहुत समय अकेली। सावित्री मौसी एकदम अपना घर समझकर आती थी अपने घर के लोगों की तरह। भय जैसी कोई बात नहीं,कहकर बारबार आश्वासन देती थीं। अपने ही लोग,ऊपर से इतना उपकार!  फिर भी मेरी माँ दबी-दबी सी लग रही थी। सावित्री भाभी की कुछ असुविधा होने से क्या मुंह खोलकर उन्हें कुछ कह सकती है ? पापा सब्जी के लिए सुबह-सुबह चले जाते थे ,खाने के शौकीन जो थे। ताजी सब्जी देखकर खरीदते थे,दो बड़े बेग भरकर। उस सब्जी से माँ सावित्री मौसी के घर कुछ भेज देती थी। टूर से लौटते समय पापा बड़ी मछली या केंकड़ा लाते,तो माँ रसोई बनाकर उनके घर भेजती। माँ और सावित्री मौसी में धीरे-धीरे अंतरंगता बढ़ती गई। एकदम क्षीर-नीर संबंध की तरह।
पापा को इन सब बातों से कष्ट होता था। ज्यादा संबंध बढ़ाना ठीक नहीं। सज्जनता के लिए कई दिनों ,कई महीनों तक गृहस्वामी की इन चर्चाओं में उनका कम से कम और एक हजार रुपए खर्च हो जाते थे। पापा का स्कूटर खुले में पड़ा रहता था। धूल,पानी,बारिश,ठंड ,धूप खाता था। मगर गृहस्वामी एक छोटा-सा शेड भी बनाने के लिए तैयार नहीं थे। किराए का मकान था। इसलिए अपने से बनाना भी संभव नहीं था।
कई दिनों तक हमारे घर में फोन नहीं लगा था । हरि मौसा कहते थे, फोन हमारे क्या काम में लगेगा ? संबंध फिर किस काम का ? पापा को संकोच होता था ,फिर भी मजबूरन नंबर कितनों को देने पड़े। पापा जाकर फोन पकड़ने से पहले हरि मौसा के फोन पर उस व्यक्ति विशेष के साथ आत्मीयता बोध देते थे। हरि मौसा इस तरह खूब मिल-जुल जाते थे। हमारे घर के बारे में इस सूत्र से बहुत-कुछ खबर रखते थे। पापा क्या नौकरी करते थे , कहाँ जाते थे,कितना वेतन पाते थे,क्या करते थे इत्यादि छोटी-छोटी बातें।
हमारे चिट्ठी भी उनके लेटर-बॉक्स में आती थी। सावित्री मौसी आकर हमारी चिट्ठी देकर जाती थी। कभी-कभी रात में ,तो कभी-कभी एक दो दिन विलंब से। कहना अनावश्यक होगा  कि चिट्ठी-पत्रों को अच्छी तरह पढ़कर उदरस्थ कर लेते थे। हमारे पास कुछ भी करने का उपाय नहीं था। इतने स्नेह,आदर और आत्मीयता भरे संबंध के बीच इस तरह किसी अप्रिय अविश्वास का स्थान कहाँ ?
सावित्री मौसी को योजना थी भैया को दामाद बनाने की। इसलिए वह भैया का बहुत ही आदर-सत्कार करती थी , मगर भैया उनकी पकड़ में नहीं आते थे। उनकी बेटियों की तरफ भी नहीं देखते थे, नाम जानना तो दूर की बात। मेरी परीक्षा समाप्त होते ही गर्मियों की छुट्टी शुरू हो गई। इसलिए हॉस्टल छोडना पड़ा और उसके साथ छोड़ने पड़े मेरे मर्म बंधुओं को। उनके बीच छोडकर आ गई मेरी परम सखी आरती को। मेरी इच्छा थी, आरती मेरी भाभी बने। भैया ने मुझे यद्यपि यह बात नहीं बताई थी, मगर यह मैं जानती थी ।
कुछ दिन सावित्री मौसी से मिलने के बाद मैं फिर से अपनी दुनिया में डूब गई । घर का कामकाज ,किताबें पढ़ने में मेरा समय बीतता था । पड़ोसी या गृहकर्ता के घर जाकर सावित्री मौसी अथवा उनकी लड़कियों के साथ समय बर्बाद करने की मेरी स्पृहा नहीं थी । मगर उन्होने जो स्नेह,आदर दिया , उसे नजर-अंदाज कैसे किया जा सकता था ? पहले-पहले अनेक सप्ताह बहुत अच्छा लग रहा था । दोस्तों की चिट्ठी प्राय हर रोज आती थी । अचानक सारी चिट्ठियाँ अनियमित और फटी हुई अवस्था में पहुँचने लगी । कभी-कभी तो बहुत सारी चिट्ठियाँ गायब हो जाती थी । मैं अब जल्दी काम खत्म करके पोस्टमेन के आने का रास्ता देखने लगी , जैसे सारी चिट्ठियाँ सीधे मेरे ही हाथों में  आ जाए । अवश्य , छुपाने जैसी कोई चिट्ठी मेरे पास नहीं आ रही थी और न ही ऐसे संबंध मेरे किसी के साथ थे । मगर सारी चिट्ठियों का गायब होना अथवा अप्रीतिकर अवस्था में मिलना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था ।
अचानक एक दिन मेरी एक चिट्ठी उनके शयन –कक्ष से बरामद हुई । सावित्री मौसी अप्रस्तुत दिखाई देने लगी और सफाई देने लगी कि वह उसे देना भूल गई है । उसके बाद ही उसने माँ को अपनी बड़ी बेटी के लिए प्रस्ताव दिया । माँ भी इस बात को पहले से जान चुकी थी,क्योंकि धीरे-धीरे उनके घर रसोई भेजना अथवा कभी-कभी रसोई बनाने का मना कर अपने घर खाने पर बुलाने की परंपरा को उन्होने बंद कर दिया था । प्रस्ताव के लिए न तो उन्होने सीधा-सलख मना किया था और न ही अपनी सहमति जताई थी । इतने सुंदर गुणवान बेटे को वे ऐसे घर में शादी नहीं कराएंगे , इस तरह का उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया था ।
इस चिट्ठी की घटना के बाद जैसे सब-कुछ स्पष्ट हो गया । घर के भाड़े में अचानक पाँच सौ रूपए की वृद्धि हो गई। वहाँ से हटने पर नाराज। ढ़ाई हजार रुपए में दो छोटे-छोटे कमरे लेकर फिर चिंतामणीश्वर में रहने की हमारी इच्छा नहीं थी । यहाँ से रिक्शा या ऑटो-रिक्शा मिलना भी मुश्किल । ऐसे भी छोटा-बड़ा खर्च मिलाकर और पाँच सौ रुपए अगर जुड़ जाते है, तो क्या लाभ होगा ?
लगभीड़ कर घर खोजने का काम चालू हो गया। हरि मौसा अपनी पत्नी से आँख छुपाते हुए सफाई देने लगे, “ मैं क्या करूँ , श्रीमान ! देख रहे है तो कोई रोजगार नहीं , पेंशन में कितने पैसे ! महंगाई भी बढ़ गई है ! वह कहीं से सुनकर आई है कि ऐसे घर साढ़े तीन हजार रुपए के भाड़े में लगता है । आप तो किराया वाले नहीं है । हमारे बहुत पुराने अच्छे संबंध रहे है , इसलिए उसे समझा-बूझकर पाँच सौ रुपए कम किए है।“
हरि मौसा की सफाई से मगर हम और अपना मत परिवर्तन करने के लिए प्रस्तुत नहीं थे । हमारे बीच के घर की दीवार से सटे उनका शयन-कक्ष होने से हमारी सारी बात-चीत उन्हें सुनाई देती है , यह बात तब पता चली । जब रात की बातचीत को कान लगाकर सुनकर अंत में सावित्री मौसी ने मुंह फुलाकर जब भैया को जाते समय अच्छे से गेट बंद कर जाने का हुकम दिया तो माँ भी चौंककर ताकने लगी ।
इसी बीच एक दिन आरती का फोन आया हरि मौसा के फोन पर । भैया के पास सावित्री मौसी पानी का गिलास रख खड़ी हो गई । लड़की का फोन, फिर भैया के आवेगपूर्ण चेहरे से बात पता करने में ज्यादा कष्ट नहीं हुआ उनको । उसके बाद शुरू हो गया सिलसिला माँ के कान भरने का । इस विषय में थोड़ी-सी भनक नहीं मिलने वाली माँ भैया के ऊपर एकदम क्रोधित होकर लाल –पीली हो गई । भैया के द्वारा चयन की गई लड़की जो उसके मनपसंद सुंदरी,सर्व-सुलक्षणी न होगी, ऐसा क्यों लगता है सास होने वाली माँ को ? कहना उचित होगा कि सावित्री मौसी दूसरे दिन सुबह बहुत प्रसन्न दिखाई दे रही थी । अब  उनके घर से स्वादिष्ट पत्र-पोड़ा’, मछली की सब्जी , रोई तरकारी पहुँचने लगी ।
मगर ठीक पंद्रह दिन के बाद  हमें एक नया घर मिल गया ,पास में । भाड़ा अवश्य साढ़े दो हजार । मगर एक कमरा अधिक , अच्छी जगह , खुली-खुली सी  । घर के मालिक ऊपर में रहते थे और हम नीचे वाले महले में । हमारा सामान बांधने का काम पूरा होने पर बहुत सारे कागज निकालकर फेंकने पड़े । उनमें अखबार ,मैगजीन ,चिट्ठी ऐसे अनेक आवर्जन वस्तुएँ भी थी । हरि मौसा की उस समय तत्परता क्या देखोगे ? वह खुद जाकर घर के पीछे खाली जगह में जमा कर रहे थे और अंत में वह कागज के स्तूप में आग लगाने के बहाने। चिट्ठी पढ़ने में व्यस्त हो गए । हमारे किसी के आने पर कहने लगते है , पढ़ना मेरा शौक है । इसलिए जो कुछ मेरे हाथ में आता है ,मैं वह पढ़ने लगता हूँ । यहाँ तक कि सब्जी लाने वाले कागज के ठोंगे को भी नहीं छोडता हूँ ।
इस तरह की बात करने वाले को और कौन रोक सकता है ?
अकस्मात “ बचाओ ! बचाओ !...” हरि मौसा की आर्त-चित्कार सुनकर हम सभी बाड़ी की ओर दौड़ पड़े । मौसा नीचे गिरे छटपटा रहे थे।  कागज का ढेर हुत-हुत कर जल रहा था और उनमें जोरदार आवाज करते हुए फट गया था एक बिन फूटे पटाखे , जो दीपावली के दिन बच गए थे । हम लोगों ने ध्यान दिए बिना उस थैले को डस्टबिन में फेंक दिया था । मौसा के मुंह और हाथ विशेषकर जल गए थे । हमने तुरंत उन्हें ले जाकर अस्पताल में भर्ती करवा दिया और सात दिनों तक उनकी सेवा-सुश्रूषा की । दोनों परिवार के लिए हमारे घर में खाना बनाया । डॉक्टर और दवाइयों का खर्च किसने चुकता किया और कहने की जरूरत होगी क्या ?





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