चाँद के उस पार


चाँद के उस पार
 
रात के साढ़े ग्यारह बजे फिर से उसका फोन आया। दिसम्बर महीने की पूर्णिमा की रात मानो अशुभ अमावस्या बन गई हो। तुरंत  मैंने रिसीवर काट कर रख दिया , नहीं तो,  रात भर शराबी की तरह न जाने कितनी बार वह फोन लगाता रहता।अचानक उसका चेहरा याद हो आया। सत्रह वर्ष पूर्व गुलाब की पंखुड़ियों के चित्रों पर लिखे उसके लंबे-लंबे खत।
उस वक्त वह आर्मी में था, काश्मीर वादियों में किसी अज्ञात जगह पर।ऐसी ही एक दिसम्बर रात में एक प्लेटफार्म पर उससे मेरा परिचय हुआ था।गहरे हरे रंग वाली  पोशाक पर मोतियों के रंग जैसी जैकेट पहने हुए था वह, जिसे  मैंने न तो किसी को पहले और न बाद में पहने देखा। वह सभी को चुपचाप बैठे हुए देख रहा था, हाथ में रोवल्ड डाल की किताब पकड़े। बीच-बीच में सभी को उनके गंतव्य स्थल के बारे में पूछ रहा था और अधिकतर जगहों के बारे में अपने अनुभव सुना रहा था । तब तक मुझे मालूम नहीं था , वह उत्तर-पूर्व भारत का रहने वाला है। उसकी छोटी-छोटी आंखें और पहाड़-वासियों की तरह नहीं थी। वह दिखने में एक योद्धा की तरह लंबा-चौड़ा लग रहा था।उसके हाथ लंबे और आकर्षक दिख रहे थे,एक प्रेमी पुरुष की तरह।
मुझे उसे देखना अच्छा लग रहा था। इसलिए उस रात लगभग तीन बज कर पैंतालीस मिनट के आस-पास जब उसने मेरा पता और फोन नंबर एक छोटे कागज के टुकड़े पर लिखकर देने के लिए कहा, मैंने मंत्र-मुग्ध हो कर लिख कर दे दिया और मैं भूल गई मेरे सारे स्वाभाविक प्रतिबंध                                                                                          एक रक्षणशील परिवार की बेटी के सारे अपरिचित आदमियों के लिए। वास्तव में, मुझे उसका व्यवहार, आचरण और वेशभूषा सभी बहुत आकर्षित कर रहे थे। सबसे ज्यादा  अच्छा लग रहा था उसका बड़ा माउथ आर्गन, जिससे उसने पुराने हिन्दी फिल्मी गीत बजा रहे थे केसर के फूलों में खुशबू बिखेरने की तरह।
उसके बाद उसने चिट्ठी लिखी,आठ पेज लंबी गुलाबी चिट्ठी। ऐसी इत्र से लिपटी चिट्ठी मेरे लिए पहला अनुभव थी। यह चिट्ठी साधारण लिफाफे में न आकर छोटे बादामी रंग के ऑफिसियल लिफाफे में आई थी। मेरे पास पहुँचते-पहुँचते वह लिफाफा फट-सा गया था। मेरी माँ के हाथ में आया वह सम्मोहन पत्र। वह बहुत नाराज हुई थी।  मगर उसकी चिट्ठी में नाराज होने जैसी कोई बात नहीं थी। उस चिट्ठी में उसने अपने कठिन और निरानंद जिंदगी के बारे में वर्णन किया था। उसके साथ एक छोटी-सी दुर्घटना हुई थी और अस्पताल में बिस्तर में पड़े हुए उसने चिट्ठी लिखी थी। पता नहीं क्यों, वह मेरी दोनों आंखों को भूल नहीं पाया था और मेरी पतली कमर से झूल रही रूपंजेल चोटी को भी ...। मुझे लिखा था केवल बैरक के सिवाय वहाँ कुछ भी नहीं था।  बर्फ दूर से बहुत अच्छा लगते हैं।  नहीं तो, पास होने से वे जला देते हैं,  कष्ट देने लगते हैं। वह रात-रात भर मेरी चिट्ठी का इंतजार करता। कहता था मेरी चिट्ठियां उसे अदिन में भी केसर की बगीचे की तरह लगेंगी, एक अपरिचित दुनिया में एक विशेष युवती के मासूम मन की बातें।  पता नहीं क्यों, मैंने कभी उसकी चिट्ठी का उत्तर नहीं दिया। शायद मैं डरती थी। इसका जवाब वह जरूर देगा और उसे प्रेम करने की हिम्मत मुझमें नहीं थी,जो उस समय स्वाभाविक था
एक रात उसका फोन आया , 'पदमाजी ?'
मैं जैसे वज्रपात की चोट से अथर्व हो गई थी। उन दिनों टेलीफोन की घंटी ड्राइंग रूम में सभी को एक साथ इकट्ठा कर देती थी। फिर सर्दी का वह विलंबित प्रहर। उल्लू की हूट-हूट आवाज से भी ज्यादा भयंकर लग रही थी टेलीफोन की आवाज। उसके कुछ भी बोलने से पहले मैंने गंभीर स्वर में हमारे लेडीज हॉस्टल की वार्डन की तरह कहा, कृपया इस समय रात को फोन नहीं करें। हम अच्छे परिवार से है। उसके बाद मैंने घरवालों के संतोष के लिए रिसीवर को जोर से पटक कर रख दिया। इस पर मेरी माँ इस आदमी से बहुत नाराज हुई थी। वह एक महीने में चार चिट्ठी भेज चुका था मेरी तारीफ करते हुए।
दस दिन के बाद फिर से उसकी चिट्ठी आई। इस बार वह बुरी तरह टूट चुका था और बार-बार क्षमा याचना की सौ-सौ प्रतिध्वनियों से भरी हुई थी वह चिट्ठी। ऐसा लग रहा था मानो वह पुरुष होने के कारण रात में ओस-बिन्दुओं की   तरह चुपचाप आँसू बहा रहा हो और पंक्तिबद्ध पाइन के पेड़ों में छुप कर माउथ ऑर्गन से दुख भरे गीत गा रहा हो। मुझे भी उसके लिए बहुत दुख लग रहा था। जान-बूझकर अधिक भाव-प्रवण होकर किसी को  दुख पहुंचाने से स्वयं को भी कष्ट होता है। मैंने सोच लिया था कि वह और चिट्ठी नहीं लिखेगा।
मगर वह चिट्ठी लिख रहा था। आर्मी के सांकेतिक गोपनीय पतों से, अनेक दिनों तक। मुझे लग रहा था जैसे वह मुझे प्यार करने लगा हो। शायद मुझे देखकर उसे किसी और के नजदीकी की खुशबू आ रही हो। कुछ तो समानता थी मेरी आँखों में या मेरी कमर तक लटकती घनी चोटी से .... । उसने मुझे अपने घर के बारे में लिखा था । उनका एक बहुत बड़ा परिवार और एक विशाल महल। उसकी पत्नी एक धनवान परिवार की इकलौती बेटी , जिसकी गायकी बहुत ही शानदार थी। ससुराल में फूल की तरह रहती और तस्वीरें बनाती। क्योंकि मैंने उसे देखा था और मैं सोच रही थी कि ऐसे सुदर्शन पुरुष कैसे आर्मी के कठोर  और उसकी नियमबद्ध जीवन-शैली में अपने आपको ढाल सकता था। उसने लिखा था कि उसे गाने का बहुत शौक है वह अच्छा गीत गाता है। मगर उसका स्वर गाने के लिए बहुत ही गंभीर था। मैं सोच भी नहीं पाती थी कि वह गीत कैसे गाता होगा। मैंने पहले पहल अभ्यास कर और बाद में उसे आसानी से नजर- अंदाज करना शुरू कर दिया था। उसका केसर बगीचे का मोह, गुलाब बगीचे में घूमने-फिरने के आनंद का स्वप्न-विलास, और चाँदनी-रात में पाइन के पेड़ों के तले मेरा हाथ पकड़कर सप्त-ऋषि मण्डल देखने की प्रबल इच्छा सभी को मैंने उसकी अतिरंजित कल्पना समझ लिया था। तथापि, अनेक महीनों से वह मुझे चिट्ठी लिख रहा था, अधिकांश समय अपनी प्रतिध्वनि की तरह, वह अपने आप को एक जैसे शब्दसंयोजन में एक ही धागे में व्यक्त कर रहा था।
सत्रह वर्ष के उपरांत जब मुझे उसका होली के अवसर पर प्रार्थनाजयी फोन आया ,तब मैंने कहा , “ इस बार मैं तुम्हारे राज्य जा रही हूँ , वहाँ तुमसे मिलूँगी।
यह जानकर उसे बहुत ही अचरज हुआ और सोचने लगा कि शायद मैं उसका मज़ाक उड़ा रही हूँ। कहाँ ओड़िशा का एक छोटा गाँव और कहाँ कोहिमा का नागा पर्वत। मगर उसने स्वाभाविक तरीके से उत्तर दिया, “आपसे मिलकर वास्तव में मुझे बहुत खुशी होगी!
मेरी शादी नहीं हुई है जानकर उसे दुख हुआ और कहने लगा,  काश! मेरी शादी उसके साथ हुई होती तो वह सपनों में, बादलों और तारों में दिन-रात मेरे साथ विचरण करता। बहुत रात हो गई थी। मैंने अभी भी उसे मेरा मोबाइल नंबर नहीं दिया था। उसे बिलकुल यकीन नहीं हो रहा था कि मैं इतनी दूरी तय कर उससे मिलने जाऊँगी। उसे विश्वास भी कैसे होता , एक साधारण लड़की जरा-सी जान-पहचान वाले आदमी को मिलने डिमापुर के एक छोटे से गाँव में जाने का दुस्साहस करेगी! डिमापुर के उस गाँव का नाम मैंने लिखकर रखा था खटखटी
कुछ दिन बाद मैंने अपने असम निवासी एक दोस्त को कहा कि मैं  डिमापुर जाना चाहती हूँ। वहाँ मेरा प्रेमी रहता है। बिना कुछ पूछे वह मुझे अपने साथ ले जाने के लिए तैयार हो गया । हम डिमापुर की ओर निकल पड़े। गुहावटी से डिमापुर का रास्ता बहुत ही लंबा है। रास्ते के अनेक स्थान ओड़िशा से मेल खाते हुए। दूर-दूर तक समतल भूमि और धान के खेत। बाहर का तापमान क्रमश बढ़ रहा था, उसीके साथ उन पाँच घंटों की उत्कंठा भी। डिमापुर पहुँचते ही मेरा वांछित वह पुरुष बंधु स्टेशन पर प्रतीक्षा कर रहा था। पहले की तरह सुगठित शरीर ,आर्मी कट बाल ,उज्ज्वल आँखें। और  शरीर पर सफेद और लाल रंग का एक सुंदर नागा जैकेट। मगर मैं बदल गई थी। मेरे सिर पर छोटी चोटी , थोड़ा मोटा बदन और आँखों पर पावर वाला चश्मा। मुझे लगने लगा कि शायद वह मुझे नहीं पहचान पाएगा। मगर उसने झुककर धीरे से पूछा, 'पदमाजी' ?  मेरे चेहरे पर आए सतेज भाव देखकर वह तुरंत समझ गया कि मैं ही सत्रह साल पहले की अड़तीस किलो वजन की लड़की का नूतन और वयस्क संस्करण हूँ। शहर के एक संभ्रांत होटल में हम दोपहर का खाना खाने के लिए पहुंचे । बहुत ही सुंदर माहौल था ! रक्तिम लाल आंटिरम फूल और बर्ड्स ऑफ पेरेडाइज़ फूल कितने जीवंत और उन्मादक लग रहे थे! सारे पत्ते ज्यादा हरे-भरे,आसमान अधिक  नीला और बताश  अधिक स्वच्छ लग रहा था। दूर पहाड़ी पर बादल ही बादल।
उसने कुछ विदेशी शराब मंगवा और खूब जी भर कर खाना खाया। उसने चावल का बियर ,बांस की करड़ी और पके मांस की सब्जी अवश्य खाने के लिए हमें कहा। मेरे असमिया दोस्त ने अतिथि सत्कार में बिलकुल भी कृपणता नहीं दिखाई और पहले की तरह वही मार्जित भंगिमा और रसिक स्वभाव। जीवन के लिए असीम आग्रह , नाचना-गाना और किसी का प्यार, अगर इतना मिल जाए तो किसी और चीज का अवसाद नहीं है। मैं मन ही मन सोचती थी कि यह आदमी इतना बिंदास कैसे है ? यह बात सही थी कि किसी औरत को मंत्रमुग्ध करने का सारा कौशल उसमें मौजूद थी। मैंने मेरे उस दोस्त के किसी भी पत्र का उत्तर नहीं दिया था और फोन भी नहीं किया था। लगभग शाम होने जा रही थी और मैं उसके परिवार वालों से मिलने के लिए बेताब होती जा रही थी। बहुत सारी कलाओं में पारंगत मेरे दोस्त की पत्नी कैसी होगी ? कैसा होगा उसका राजप्रसाद ? मुझे उन्हें देखने की बहुत इच्छा हो रही थी। मन में तरह-तरह के हजारों सवाल उठ रहे थे ।
मेरा असमिया मित्र कुछ समय के लिए दूर जाने के समय मेरे प्रेमी ने मुझे लजाते हुए कहा, “ पदमाजी, मुझे दो हजार रुपए उधार दे सकती हो ? मैं वेलेट लाना भूल गया हूँ। कल सुबह आपको लौटा दूंगा। तुम्हारे दोस्त के सामने यह बात करने में मुझे संकोच लग रहा था।”  
बिना कुछ कहे मैंने उसे पैसे पकड़ा दिए। होटल का बिल उसने चुकाया। मुझे नहीं लग रहा था कि मेरा असमिया मित्र ज्यादा उत्साहित थे। मुझे लग रहा था कि वह मेरी खुशी और मर्यादा के प्रति ज्यादा जागरूक था। हम दोनों उस को छोड़ने के लिए आगे बढ़े , उस समय बारिश आरंभ हो गई । मगर बाहर में कोई कार नजर नहीं आई। मैंने उससे कहा कि हम सुबह आठ बजे तैयार रहेंगे और उसने कहा वह खुद आकर उन्हें अपने गाँव ले जाएँगे
  दिमापुर में बहुत जल्दी रात हो जाती है। सारे रास्ते सुनसान हो जाते हैं। आठ बजे के आस-पास सारी दुकानें बंद हो जाती है। मणिपुर,नागालैंड ,वर्मा और आसाम का संगम-स्थल है वह बाजार और कारोबार के लिए। नशे के पदार्थ खूब बिकते हैं। बात-बात में चाकू-छूरा चलते है। मेरे दोस्त ने जरा हँसते हुए कहे, “ क्या यह आदमी वास्तव में आपका प्रेमी है ?”
मैंने सही सही बात बता दी, “नहीं, सत्रह साल पहले एक बार उससे दिल्ली स्टेशन के वेटिंग रूम में उससे मुलाकात हुई थी। इस तरफ आना था,इसलिए अचानक मिलने की इच्छा हो गई। मैं अपनी आँखों से उसके सपने और यथार्थ दुनिया को देखना चाहती थी।”   
दीर्घ-श्वास लेते हुए उन्होंने कहा, “ अंधेरे में यह सज्जन क्यों ऐसे चले गए ? की गाड़ी कहाँ थी ? नागालैंड आजकल इतना निरापद नहीं है जब  .....
शुभ रात्रि कहते हुए मैंने उन्हें सुबह आठ बजे आने के लिए अनुरोध किया और थकान की वजह से मैं जल्दी सो गई। सुबह साढ़े आठ बज गए। टोस्ट, आमलेट खाकर हम उसका इंतजार करने लगी। मगर उसका कोई नामोनिशान नहीं था। मेरे दोस्त मेरी बेचैनी को समझ रहे थे, मगर कुछ भी नहीं बोल रहे थे। जैसे मेरी इच्छा की पूर्ति करना ही उनका कर्तव्य है। मैं निश्चित समझ गई थी कि उसने मुझे धोखा दिया है। कल वह दो हजार रुपए लेकर गया है और आज  तो क्या वह कभी लौटेगा नहीं। मैं अपमानित अनुभव कर रही थी। फिर भी क्योंकि उसके गाँव का नाम मुझे याद था इसलिए हमने अट्ठारह मील दूर उसके गाँव जाने का निश्चय किया। रास्ते के दोनों तरफ हरे-भरे पेड़-पौधें, रंगीन बैंगन,गुलाबी फूलों की लता मन मोह रही थी। बांस  से बनी बाड़ी के अंदर लकड़ी से बने घर और कर्मठ नागा लोग कितने अतिथि परायण थे !    
खटखटी गाँव पहुँचकर उसका घर ढूँढने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई। क्योंकि वह अपने गाँव में काफी लोकप्रिय था। गाँव के एक कोने में उसका लकड़ी का तीन कमरों वाला एक घर था। पत्थर की दीवारें, एक छोटा-सा तालाब और पास में सीमेंट का बना हुआ एक बेंच था। वह घर पर नहीं था। हमारे वहाँ पहुँचते समय सर्दी की गुलाबी धूप में दो चार बुजुर्ग बैठकर ताश खेल रहे थे। बीच-बीच में अपनी नतिनी को बुलाकर चाय मँगवा लेते थे और लगातार विरक्ति भाव से अपना असंतोष व्यक्त कर रहे थे। वे उसके माता-पिता और उसके सास-ससुर थे। एकाध वर्ष में एक के बाद एक स्वर्ग सिधारने की तैयारी में थे। अभी भी वे एक दूसरे पर आधा निर्भर कर रहे थे। चारों बुजुर्ग लोग एक साथ उन  लोगों के ऐसे असंतोष पर उसकी पत्नी श्रीला जुबान नहीं लडाती थी और हम लोगों की वह उनके पीठ पीछे तात्स्लय नहीं करती थी। वह नहीं कह रही थी कि वह इतना काम कर करके मर जाएगी  और वह ज्यादा काम नहीं कर सकती। सारा भार उसके कंधों पर था ,तीन बच्चों का भरण पोषण भी  मौत और जीवन के पथ का समांतराल प्रवाह एक साथ , एक ही समय में। उका सबसे ज्यादा दुख था उकी गरीबी। देखने से साफ पता चलता था कि सबके लिए पेट भर खाना जुगाड़ करना भी मुश्किल था। 

  श्रीला का चेहरा खिले हुए फूलों की तरह अपने अधरों और आँखों पर मधुर मुस्कान लिए दिखाई दे रहा था। वे ईसाई थे। घर में थे बेडिंग्स के कुछ सामान ,कुछ कृषि-उपकरण और छोटे-से बक्से में कुछ कपड़े। कम ऊंचाई वाले लकड़ी के घर की छत पर लटकी हुई थी लौकी तथा एक नीले रंगवाली फूलों की लता। घर के पास  लगा हुआ था एक छोटा-सा किचन गार्डन। जिसमें अनेक सब्जियों के साथ-साथ लगे हुए थे, दो कतार मक्कों के पौधें। सब जगह लदे हुए थे छोटे-छोटे फूलों के गुच्छे। मगर आँखों के सामने नजर आ रहा था उस घर का सत्य, बहुत ही साधारण, क्षुधाहीन और अज्ञात कुलशील की तरह। श्रीला ही सबकी देखभाल करती थी। इसके साथ-साथ घर के आवश्यक खर्च वहन करने के लिए पास की किसी अस्पताल में पार्ट-टाइम नर्स का काम करती थी। जी-तोड़ मेहनत करती थी वह सारा दिन। रात को पति के लंबे-लंबे गुलाबी नरम हाथों की ऊष्मा का स्पर्श पाकर उसे नींद आ जाती थी। उसे पता ही नहीं चलता था कि कब सुबह हो जाती थी। अपने पति का सान्निध्य उसके लिए एक देवपुरुष का सान्निध्य था। वह अपने पति को बहुत प्यार करती थी ,अन्यथा उसके पति की सहेली होने का परिचय पाकर वह हमारे साथ इतना अच्छा व्यवहार कैसे करती ?

वह भी उस समय जब उसका पति घर पर नहीं था! घर की दीवार पर लटक रहा था केवल उसका रंगीन जैकेट ,जिसे पहनकर कल उसने हमारे साथ दिन  बिताया था। यह बात निस्संदेह सही थी कि उसने हमारे बारे में अपनी पत्नी को कुछ भी नहीं बताया था । दो हजार रुपए लौटाने की बात तो दूर , वह हमसे मिलता भी नहीं। उसके घर की वास्तविक स्थिति इतनी दुर्भाग्य जनक होगी, मैंने कभी सोचा भी नहीं था। अनजाने में इतने दिन मैं मन ही मन उसकी पत्नी और परिवार से ईर्ष्या कर रही थी! उसके नजदीक होने की कल्पना भी कर रही थी। कभी भी जवाब नहीं देने के बाद भी मैं उसके पत्रों का इंतजार करती और उन्हें संभाल कर रखती। यह बात सही थी कि अपनी लंपट स्वभाव के कारण उसे आर्मी से निकाला गया था , उसके बावजूद भी उसने शराब पीकर न तो अपनी पत्नी पर हाथ उठाया और न ही कभी कठोर भाषा का इस्तेमाल किया। क्योंकि श्रीला के चेहरे पर किसी भी तरीके के शिकन के निशान नहीं थे।  

उसी समय वज्रपात की तरह उसका आविर्भाव हुआ। पास किसी झरने में मछली पकड़ने गया हुआ था वह । यह बात भी सही थी कि अपना सप्लाई बिजनेस और गाँव की राजनीति छोड़कर वह इस तरह के अनेक छोटे-मोटे कामों में व्यस्त रहता था । औरत के प्रति अपनी कमजोरी के कारण वह आर्मी से निकाला गया था , मगर नौकरी जाने के बाद भी गरीबी के अंदर वह सहज भाव से रह सकता था । अपने बगीचे की फेंसिंग पर झुकते हुए जब उसने हमें देखा तो उसका चेहरा लज्जा और आतंक से विवर्ण हो गया। कहाँ वह सपनों का महाराजा और उसका धनाढ्य प्रसाद और कहाँ उसकी असलियत ,इतनी करुणा और दारिद्रय भरी !!
मैं अपने आपको श्रीला की जगह पर रख कर अवाक हो रही थी , क्या मैं ऐसे कभी सुखी हो पाती ? ऐसी बात नहीं है, कि मैं अपने जीवन से बहुत संतुष्ट थी। मगर एक झूठे इंसान की पत्नी होना तो दूर की बात, उसकी प्रेमिका बनना भी  कितनी शर्मनाक होती! और वह क्या सोच रहा था ? वह बहुत ही असहाय लग रहा था और उसके चेहरे पर और उसके खुले हुए होठों पर था अचानक बहुत सारी चीजें खो देने का बेबस रंग। जीवन की इसी असुंदरता और वेदना ने मुझे स्तंभित कर दिया था। उसको शायद मेरी वह बात याद आ गई। मैंने उसको फोन पर कहा था , तुम जहां भी रहो , तुम्हारी ओर से जाते  समय निश्चय  ही मैं तुम्हारे घर आऊँगी। यह भी था प्यार करने का एक अबोध अंगीकार। मगर जीवन का कैसा विचित्र स्वभाव। खुशी से उड़ रही रंगीन तितली के पंख काट देने से भी वह जरा भी घबराती नहीं।

वेदना पसरी हुई थी सुबह की धूप की तरह। आघात ताजे थे। दूर पहाड़ियों तक उसकी प्रतिच्छाया नजर आ रही थी। शीशे की तरह आमने-सामने होते हुए भी कोई किसी का चेहरा देख नहीं पाते थे। लौटते समय मेरे दोस्त ने मेरा हाथ पकड़कर हौसला बँधाते हुए कहा , “ दुखी मत हो। उसकी किस्मत अच्छी है कि उसकी पत्नी गूंगी और बहरी है। लोग कहते हैं नागाफाकी अर्थात यह लोग बहुत झूठ बोलते है। पलक झपकते ही ....”

घने जंगल की ठंडी छांव देने वाले रास्ते के दोनों तरफ आवेग जकड़े हुए था एक हृदय के  जलने के धुआँ। जिसके अंदर निस्तेज हो कर पड़ा रहा था एक पुरुष का प्राण-प्राचुर्य, जिसे अभी-अभी उसने खो दिया था।











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