विप्रलब्धा


विप्रलब्धा
 
सीनियर कैंब्रिज की पढ़ाई पूरी होने से पहले ही नन्दिता की शादी तय हो गई थी ओड़िशा के मयूरभंज सीमा पर बसे एक सुप्रतिष्ठित राजघराने में। हम सभी सहेलियों में वह सबसे अलग थी- एक सुंदर राजकुमारी , हल्की सी हल्दी रंग की काया वाली कोमलांगी षोडशी । उन लोगों का एक विशाल दुमंजिला मकान था कटक शहर में, ब्रिटिश ढांचे में बना । खिड़की,दरवाजों तथा ऊपरी मंजिल में बनी हुई थी महीन नक्काशी से बनी हजारों कारीगरी । वह घर अभी भी मौजूद है । मगर फिलहाल बहुत सारा अंश टूट गया है । राजमहल के प्रशस्त आँगन के भीतरी दीवार से मंदिर की ओर जाने का एक रास्ता बना हुआ है । फिलहाल मंदिर भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है । सामने वाली कोठी भी टूटते-फूटते हालात में है । पीपल के पेड़ की जड़ों ने मानो संभाल कर रखी है उसकी अलिखित स्मृतियाँ ।  घोड़ागाड़ी को छोड़कर उस समय चालीस साल पहले आस्टिन चलाते थे वे लोग, उस समय मेरी उम्र थी पंद्रह साल और मेरे बड़े भाई की उन्नीस साल ।
हमारी दो सहेलियाँ और भी थीं । मल्लिका और एक सिंधी लड़की अमृता । नन्दिता की बड़ी बहन की शादी हो गई थी और वे लोग अमेरिका जाकर बस गए थे । घर पर थे दो बड़े भाई और माँ-बाप । वे लोग हम सहेलियों से बहुत कम बातचीत करते थे । उस राजप्रासाद में अति-अलंकृत और विलासपूर्ण जीवन जीने के लिए ज्यादा संपत्ति उनके पास अवश्य ही नहीं बची थी । और ऐसे कोई स्थायी रोजगार का कोई साधन नहीं था उनके पास । केवल परंपरागत तरीके से कुछ परिवार वर्तमान में उनके भृत्य की भूमिका अदा कर रहे थे । ऊंची छत के गोल गुंबज से झूल रहे काँच के विशाल झूमर पर सालों-सालों से जमा हो गई थी काले रंग की मैली चादर । खिड़की के ऊपर का रंगीन काँच भी साफ नहीं किया गया था । शाम के समय एक सुनसान वीरान जगह लगती है वह । बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता है । क्योंकि राजकुमारी के महल में संगीत की मूर्च्छना नहीं थी ,आनंद के स्पंदन नहीं थे , केवल थे अदब के कठोर कानून ,उनकी शृंखला और नीरस जीवन-धारा । फिर राजपाट नहीं टूटा था । 1947 से 1965 के मध्य संपदा हस्तांतरण के कारण उन लोगों की आर्थिक क्षमता धीरे-धीरे कमजोर होने लगी थी । फिर भी उनके प्राचुर्य भरी जीवन-शैली में कोई अंतर नहीं आया था । नौकर-चाकरों की यूनिफॉर्म पोशाक पुराने कपड़ों पर माँजकर चमकाए हुए साफ-सुथरे दिखने वाले पीतल के बटन और उनका परचूल भी चमकता था । हर-समय चुपचाप चहलकदमी ट्राली में लाकर चाय नाश्ता  रखने की वही परिवेष्टित कला । पोर्सलीन के बर्तनों में खाने के सामान और महंगे स्फटिक कट गिलासों में पानी । मखमली चादर पर सुंदर रेशमी झालर वाली डिजाइन । सभी चीजों के ऊपर राज-संपत्ति के हस्ताक्षर के निशान मानो किसी सितारा होटल के सामान पर बने हो । 1947 में अचानक सारे राजपरिवारों की संपत्ति स्वाधीन भारत की निर्वाचित सरकार को सौंपी जा रही थी । सरकार के पास संपदा का मालिकाना हक । मगर राजाओं की जीवनशैली में ऐसे आकस्मिक कोई परिवर्तन नहीं हुए थे । वे पूर्ववत् ऊंचे सामाजिक जीवन शैली  के अभ्यस्त  थे ।
 
उस समय आम लड़कियों को किसी भी जगह अकेले नहीं छोड़ा जा रहा था । हमारी जैसी कुलीन परिवार की कुलीन लड़कियों को स्कूल,कॉलेज में पाँव रखने की जगह मिलना भी बहुत बड़ी बात थी । राजा की पुत्री स्कूल के अलावा और कहीं नहीं जाएगी , इस वजह से हम लोग उनसे मिलने राजमहल में आते थे । मेरा बड़ा भाई मेरा अंगरक्षक बनकर मुझे छोड़ने आता था और फिर कुछ समय बाद लेने आ जाता था । इस तरह हर दिन आने-जाने से पैदा हुई थी एक प्रेम कहानी । एक सुंदर राजकुमारी और उन्नीस साल के सौम्यकांत युवक की । राजकुमारी से प्रेम करने का मतलब था शेर के मुंह में सिर  डालना । इसलिए बिना किसी की नजरों में आए गुप्त इशारों से छोटे-मोटे बहानों के भीतर विकसित हो रहा था उनके भीतर प्रेम और आकर्षण । न तो उसने मुझे कुछ खुलकर कहा था और न ही मेरे भाई ने इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम में अपना नाम लिखवाने के बारे में बताया था । मगर पंद्रह साल की उम्र में ये सारी बातें अपने आप समझ में आ जाती है ।
उसके बाद अचानक एक दिन राजकुमारी की कहीं शादी हो गई । छत्तीसगढ़ के किसी राजपरिवार में । बहुत ही धूमधाम से । उसके परिधान और जेवरों में जड़ित हीरे देखकर हम सभी स्तब्ध रह गए । सब कुछ एक परी की कहानी की तरह । मधुर गुलाबी फूल की तरह साड़ी पहनकर और अपने जुड़े में अध-खिले गुलाब फूल के संभार के अंदर वह एक देव-कन्या की तरह प्रतीत हो रही थी । गाजे-बाजे और चमचमाती रोशनी के अंदर वह महानदी के किनारे-किनारे अपने ससुराल चली गई । मगर शहनाई की करुण रागिनी मेरे भैया की भाव-भंगिमा में बहुत दिनों तक छाई रही । मैं जानती थी कि वह मेरे भैया की यौवन की दहलीज की पहली प्रेमिका थी । और उसे हमेशा-हमेशा के लिए खोने का दुख उन्हें बहुत सता रहा था ।
लगभग छ महीने बीतने के बाद नन्दिता अपने मायके लौट आई थी । इन छ महीनों के दौरान गुलाब की बंद कली ने मानो फूलदान में ही मुरझाना शुरू कर दिया था । प्रसाधन के प्रति बिलकुल लापरवाह और चेहरे पर नीरसता के हाव-भाव । सहेलियों के अंदर केवल उसने मुझे बुलाया था । औपचारिक चाय नाश्ता करने के बाद दरवाजा बंद करके वह मेरे सामने आकर बैठ गई । लाल रंग की कीमती कारपेट के ऊपर महगनी कुर्सी और सामने लंबे कद की दुबली पतली युवती कमल के फूलों जैसी आँखों वाली अभी भी आंसुओं से छलकती हुई । मेरे दोनों हाथों खींचकर अपने घुटने पर रख चुपचाप बैठी रही वह । यद्यपि राजकुमारी की आँखों से आंसुओं की धारा नहीं बह रही थी या उसे इतना दुख पहुंचा है कि वह कुछ बोल नहीं पा रही है । मगर यह बात साफ हो रही थी कि उसे किसी घटना के बहुत व्यथित  किया है ।
मैंने आखिरकार पूछा,क्या हुआ ? मैंने तो सोचा था कि तरुण रानी से मेरी मुलाकात होगी जिसके पाँव खुशी से जमीन पर नहीं पड़ते होंगे  । और तुम्हारी सारी बातें ध्यानपूर्वक सुनुंगी । और उस राज परिवार की बातें भी , जहां की तुम रानी बनकर गई हो । जो और ज्यादा धनाढ्य और वैभव से परिपूर्ण । तुम्हारा ऐश्वर्यशाली जीवन बहुत दिनों तक हमारे लिए एक कथावस्तु बनकर रहेगा ।
सही में राजकुमारी के ससुराल वाले बहुत धनी थे । उस राजभवन की अपनी मान-मर्यादा का एक संकेत चिह्न भी था पंख फैलाकर नाचता हुआ एक नीलकंठ मयूर । हमने उसका चित्र भी देखा था । एक कांसे के दरवाजे के ऊपर आधे हिस्से में लगी मोर की वह प्रतिमा । उसकी मयूर-चन्द्रिका में असली  नीले पत्थर जड़े हुए थे । राज-घराने के पुरुषों के काम के बारे में तो कुछ जानकारी नहीं ,मगर वे ज्यादातर शिकार पर जाते थे । उनका महल बहुत सारे बलवान बाघों के सिर , उनकी खाल और अनेक हिरनों के सींगों से सजाया हुआ था उनकी बहादुरी के विज्ञप्ति के रूप में । कीमती पोर्सीलीन ,कारपेट ,बर्तन दीवारों में टंगी बड़ी-बड़ी पेंटिंग और विशाल झूमर. सब .... ।
इस बार राजकुमारी ने चुप्पी तोडी । धूमधाम से शादी सम्पन्न हुई थी उसकी । राजकुमार को पहले मिलने का अवसर नहीं मिल पाया था । केवल एक बार देख पाई थी , लंबे गोरे सुंदर चेहरे वाला युवक था वह । मगर सुहागरात , जो एक अनूठा किशोरी का स्वप्न जो यौवन के रास्ते में फूल बिछोए निष्प्रभ उजाले में इत्र और फूलों की खुशबू के उस माहौल के भीतर प्रतीक्षा करती राजकुमारी का आपादमस्तक सोलह शृंगार वह दिन आएगा ,दूसरे दिनों के बसंत की पूर्णिमा की तरह रंगीन और मादक ... ।
फूलों से सजे एक सुंदर प्रकोष्ठ में दूल्हे का प्रवेश । सिल्क के कुर्ते पर लाल गुलाबों की माला में बहुत सुंदर लग रहा था राजकुमारी का पति । मगर , मगर बाद में जो उसने सुना , उतने में चूर-चूर हो गया उसका सत्रह साल का जीवन और सपना । राजकुमार के चार गहरे मित्र थे । राजकुमार की सुहाग रात की पहली शर्त , राजकुमारी को केवल अपने पति की नहीं वरन पहले इन चार मित्रों के साथ अंकशयिनी होना पड़ेगा । वह भी उनके उम्र के अनुसार अर्थात राजकुमार की बारी सबसे अंत में । क्योंकि अपने मित्रों में वह सबसे छोटे थे । राजकुमार ने अत्यधिक शराब पी रखी थी । नई नवेली दुल्हन के विरोध के बारे में उनका कोई भ्रूक्षेप नहीं था । इस बार राजकुमारी का धैर्य टूट गया । वह केवल राजकुमारी ही नहीं थी ,वरन बहुत साहसी और शिक्षित भी थी । और कोई उपाय न देख,  अपने सोने के बिस्तर के नीचे रखा पिस्तौल निकालकर उसने कहा, "इस तरह का अपमान मैं बिलकुल सहन नहीं कर सकती । अगर जबर्दस्ती करने की किसी ने कोशिश की तो मैं तुम सभी पर गोली चला दूँगी । और मैं अपने आप को समाप्त कर दूँगी ।"
राजकुमार ने उसे समझाने की कोशिश की कि वे उनके बचपन के दोस्त है और वह जो भी करता है , पहले उनकी उसमें भागीदारी होती है । शायद द्रौपदी उस दुखद रात में पाँच भाइयों के पतित्व स्वीकार करने से उर नहीं पाई थी । मगर नन्दिता की जिद को तोड़ना किसी के वश की बात नहीं थी । नन्दिता ने घोर विरोध  किया था इस बात का । इसलिए राजकुमार हार मानकर उस कमरे से निसक्रांत होकर चले गए । और भीतर में रह गई केवल राजकुमारी काल वैशाखी में विध्वस्त हुए अपने टूटे हृदय को लेकर । सात रात तक इस घटना की पुनरावृत्ति होती रही । राजकुमारी की पूर्ण असहमति और पतिदेव की हठ ।
राजमहल के अलिंद में ,पहले गुपचुप से, फिर सभी के भीतर इस बात की हवा उड़ने लगी । राजकुमारी ने अपने मन की बात किसी दासी को बताई । दरवाजा बंद करके अंदर सोने वाली नई नवेली दुल्हन की आँखों में जरा सी भी नींद नहीं थी , यह बात साफ झलकती थी उसके गहरे काले बादलों जैसी क्लांत आँखों की पलकों से । एक सप्ताह के अंदर उसका चेहरा धूसर बन था । दासी ने उसे समझाया कि राज-घराने में ऐसा ही होता है राजकुल की यह वंशानुगत दुर्बलता है राजा साहब स्वयं नपुंसक थे और राजकुमार भी क्लीव । उनका अपने दोस्तों से अलग होने का सामान्य आभासभी नहीं है । राजवंश की गोपनीयता को दबाये रखने के लिए राजकुमारी को अपने पति की अज्योतिक  इच्छा को मान लेना ही पड़ेगा । अंत में राजमाता आकर क्षमा-प्रार्थना करने लगी और आप-बीती अपने असहाय जीवन के बारे में बताने लगी । राजमाता ने सारे अधिकार और सारी दौलत उसके नाम करने का आश्वासन दिया और अंत में कहा , राजपरिवार की इज्जत ध्यान रखते हुए  वह अपनी इच्छा से किसी भी पुरुष के साथ सहवास कर सकती है और सुखी रह सकती है । मगर इस रहस्य का  गोपनीय रहना वांछनीय  है ।
उस समय से शुरू हो जाती है राजकुमारी के किसी भी प्रकार के पुरुष को चयन करने की प्रक्रिया । राजमाता ने स्वयं कई पुरुषों को आमंत्रित कर अपने पुत्रवधू से मिलाने का अवसर प्रदान किया था । फिर भी राजवधू राजी नहीं हुई । नपुंसक पति के लंपट शराबी मित्रों के साथ हम-बिस्तर होने से साफ इंकार कर दिया उसने । तब मैं समझ गई कि राजकुमारी निजात पाना चाहती है । वह जिसे चाहती है वह है मेरा बड़ा भाई , इसमें मेरी कोई दो-राय नहीं थी 
सत्रह साल की उम्र में ये सारी बातें अपने बड़े भैया को बताने की हिम्मत मुझमें कहाँ से आ गई , पता नहीं। तब तक शायद मुझे प्रचलित सामाजिक व्यवस्था और आदमी की इज्जत के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी । सच में हम भले ही संभ्रांत-कुल के लोग थे और हमारा परिवार उच्च मध्यम वर्गीय । हम कभी इस राजघराने के समकक्ष  नहीं थे । और सबसे बड़ा प्रतिबंध था हमारा ईसाई होना । फिर भी मैं जानती थी कि मेरे भैया ने मन ही मन राजकुमारी को अपना दिल दे दिया है । राजघराने की कड़ी नजरबंदी के कारण मन की बात मन में ही रह जाती थी । केवल सौजन्य मूलक बातचीत जो कभी संभव हुआ करती थी राजकुमारी और मेरे भाई के बीच ।
पौष चतुर्दशी का दिन था वह । भैया मुझे लेने आए थे ,कहने लगे ,चलो ,आज तुम्हें कठजोड़ी का किनारा दिखाता हूँ । कितनी सुंदर दिखती है वहाँ से,  चंद्रमा की रोशनी में कठजोड़ी नदी की फैली हुई विस्तृत जलराशि।
साइकिल साथ लेकर  जा रहे थे हम। अचानक भाई को मैंने बता दी राजकुमारी की सम्पूर्ण कहानी और आखिरकार कहा, ''तुम उससे शादी क्यों नहीं कर लेते ?''
   उस दौरान मिल्स और बूंस का उपन्यास पढ़ने के कारण मेरे दिमाग में भाई को लेकर एक  ऐसी छबि उभरी थी मानो सांचे में आच्छादित वह एक दुस्साहसी वीर है और राजकुमारी एक विपन्न अबला बाला...... और उसका  उद्धार करना मेरे भैया के असली पौरुष का परिचय है !  
इस बार भैया ने मुझे बहुत शांत ढंग से समझाया ,देख ! वह ठाट-बाट में पली हुई राजकुमारी है । उसके मायके तथा ससुराल वाले बहुत ही प्रतिपतिशाली लोग है । उन लोगों को इस बात की भनक लगते ही वे एक पालक में मुझे जान से मार डालेंगे । इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है । उसके ऊपर हम ईसाई है । इसलिए धर्म का भी अंतर है । तुम क्या अपने हिटलर पापा को भूल गई ? उनके सामने कोई बात करने की जुर्रत हम छ भाई बहिनों में से किसी ने नहीं की थी । और आखिरकार मेरी योग्यता भी कितनी है ? मैं अभी केवल एक  इंजिनयरिंग छात्र हूँ और अभी कोर्स पूरा होने में दो साल बचे हुए है । नौकरी करने के लिए समर्थ भी नहीं हूँ । पापा की कमाई के ऊपर मेरी पढ़ाई चल रही है । पापा के आश्रय के बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है , कोई अपना परिचय भी नहीं है । राजकुमारी को लेकर मैं जाऊंगा कहाँ ? कैसे करूंगा उसका पालन-पोषण और उसकी हिफाजत का बंदोबस्त ? अगर मेरा इंजीनियरिंग-कोर्स पूरा होने के बाद कहीं सरकारी नौकरी भी मिल गई होती तो कुछ और बात थी । और उसे अच्छी तरह रखने के लिए जिंदगी भर की कमाई  भी कम पड़ती है । यह रोमांटिक भावना मुझे बर्बाद कर देगी ,और उसके सिवाय कुछ नहीं ... ।
भैया के तर्क युक्तिसंगत थे , मगर नन्दिता जैसे किसी दुस्साहसिक पलायन करने के लिए उल्टी गिनती गिन रही हो । सोच रही थी मेरा भैया ही शायद उसका परित्राण दिलाने वाला एकमात्र योद्धा हो बहुत ही अस्वस्तिकर अवस्था थी मेरी । शादीशुदा लड़की को बहुत दिन मायके में रखने से लोग तरह-तरह की बातें करेंगे और समाज में उसकी आलोचना होगी । उसी दौरान नन्दिता की बड़ी बहन और बहनोई कटक आए हुए थे । नन्दिता मन-ही मन अमेरिका जाने की योजना बना रही थी । कानून की नजरों में नाबालिग  होने की वजह से कुछ दिक्कतें आ रही थी । तत्पश्चात एक दिन अचानक पता चला कि नन्दिता का पासपोर्ट और वीसा तैयार हो गया था और वह अपनी बहिन तथा बहनोई के साथ अमेरिका चली गई एक तरफ का टिकट लेकर । प्रतापी ससुराल वाले भी कुछ नहीं कर पाए और उसके खुद के पिताजी और भाई लोग भी निरुपाय थे
छ साल बाद मुझे अपने डॉक्टर पति के साथ अमेरिका जाने का अवसर मिला । और मैंने वहाँ नंदिता को खोज निकाला । इस दौरान वह पूरी तरह से बदल गई थी । चाल-ढाल पूरी तरह से अमेरिकन । वहाँ पर जाकर पहले उसने टाइप सीखने का बेसिक कोर्स किया था और फिर किसी ऑफिस में नौकरी कर रही थी ।
दिखने में नन्दिता बहुत खूबसूरत  , तेईस वर्षीय एक प्रत्यय-सम्पन्न सिने-तारिका की तरह दिख रही थी  । मैंने उसे भुवनेश्वर आने से हमें खबर देने का निमंत्रण दिया था । नन्दिता ठीक उस साल के अंत में भुवनेश्वर आई थी ।जब मेरे भैया के बारे में जानना चाही तो , मैंने इस बात की सूचना भैया को दे दी थी । भैया मानो एक अपराधी हो , इस तरह के भाव थे उसके चेहरे पर । पढ़ाई पूरी करके नौकरी करते हुए कुछ साल बीते थे । उस समय वह विवाह योग्य हो गया था । मगर नन्दिता का पहले जैसा मन नहीं था  । भैया के प्रति उसका  विद्रुप भरा अनदेखा आचरण था ,मानो वह कह रही हो – “ कभी मैं तुम्हारी चिरकाल के लिए वाग्दत्ता बनने के लिए तैयार थी ,मगर तुमने कभी भी अपने प्यार को अपने होठों पर लाया नहीं । अभी देखो , मैं पूरी तरह से स्वाधीन हूँ , केवल मेरी मेहनत से । अब मैं किसी भी आदमी के साथ रह सकती हूँ , जीवन का  उपभोग कर सकती हूँ । किसी पुरुष के लिए अब मेरा समर्पण करना और संभव नहीं है ।
वास्तव में नन्दिता बदल गई थी । उसके बहुत सारे पुरुष-मित्र थे । हर शाम को नए मित्र के साथ समय बिताने में उसे आनंद आने लगा था ।  मुक्त पंछी की तरह स्वच्छंदता से वह अपने जीवन के स्वाद का आस्वादन कर रही थी । भरपूर जीवन। द्विधाहीन, कठोर शृंखला से मुक्त जीवन ...... ।
उसके चली जाने के बाद मुझे सुनाई पड़ी भैया की दीर्घश्वास ।
कभी राजकुमारी को अपना न बना पाने की ग्लानि से मर्माहत ,किसी और से शादी न करने का प्रण  करने वाले बड़े भैया ने यह बात मानो स्वीकार कर ली हो, कि वह मेरे साथ कभी भी सुखी नहीं रह सकती थी । क्या मैं उसे वह जीवन दे पाता जिसकी उसे तलाश थी ? मैं अपने आपको बहती नदी में तिनके की तरह तैरता हुआ नजर आता । मेरी उच्च शिक्षा, मेरी विदेश यात्रा ,मेरी अवस्था  सब कुछ बुरी तरह विपन्न हो जाते , इसमें तिलमात्र भी मेरा संदेह नहीं था ।
उसके इस पश्चाताप की अग्नि से निकलने के बाद  वह शादी के लिए तैयार हुआ था । बहुत ही संभ्रांत परिवार की लड़की उसकी पत्नी बनी । उन्हें अपने जीवन की स्वाभाविक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई । बीच बीच में नंदिता आती है । अब उसकी उम्र साठ से ऊपर हो चुकी है । मगर फिर भी वह दिखती है चालीस साल की एक नारी की तरह सुदर्शनी,सुमधुरभाषिणी और आकर्षक ।
अब तक उसने शादी नहीं की । उसे विवाह की आवश्यकता भी अनुभव नहीं हुई । पुरुष केवल उसके मित्र है मगर पति होने का अधिकार उनमें से उसने किसी को नहीं दिया ।
 
  















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